पृष्ठ:Vivekananda - Jnana Yoga, Hindi.djvu/२९५

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२९१
आत्मा का मुक्त स्वभाव


समझा जाता है, आत्मा कहने से भी उसी का बोध होता है--इस प्रकार सत्ता या अस्तित्व एवं ज्ञान भी आत्मा का स्वरूप है--आत्मा के साथ अभिन्न है। यह सत् चित् आनन्द आत्मा का स्वभाव है, आत्मा का जन्मजात अधिकार स्वरूप है, हम जो इन सभी अभिव्यक्तियों को देखते है, वे आत्मा के स्वरूप के विभिन्न प्रकार मात्र हैं--वह किसी समय अपने को मृदुभाव से और किसी समय उज्ज्वल भाव से प्रकाशित करती है। यहाँ तक कि मृत्यु अथवा विनाश भी उसी प्रकृत सत्ता का प्रकाश मात्र है। जन्म-मृत्यु, क्षय-वृद्धि, उन्नति-अवनति, सभी उस एक अखण्ड सत्ता के विभिन्न प्रकाशमात्र है। इसी प्रकार हमारा साधारण ज्ञान भी, वह चाहे विद्या अथवा अविद्या किसी भी रूप से प्रकाशित क्यो न हो, उसी चित् का, उसी ज्ञान स्वरूप का प्रकाश है; उसकी विभिन्नता प्रकारगत नही है, अपितु परिमाणगत है। छोटे कीड़े जो तुम्हारे पैर के पास घूमते हैं, उनके ज्ञान में और स्वर्ग के श्रेष्टतम देवता के ज्ञान मे भिन्नता प्रकारगत नहीं है, किन्तु परिमाणगत है। इसी कारण वेदान्ती मनीषी निर्भय होकर कहते है कि हम अपने जीवन मे जो सब सुखोपभोग करते हैं, यहाॅ तक कि अतिघृणित आनन्द भी--वे आत्मा के ही स्वरूपभूत, उसी एक ब्रह्मानन्द के प्रकाश है।

यही भाव वेदान्त का सर्वप्रधान भाव ज्ञात होता है, और जैसा मैंने पहले ही कहा है, मुझे मालूम होता है कि सभी धर्मों का यही मत है। मैं इस प्रकार का कोई धर्म नहीं जानता, जिसके मूल मे यह मत नहीं है। सभी धर्मों के भीतर यह सार्वभौमिक भाव रहा है। उदाहरण के तौर पर बाइबिल की कथा ले लीजिए--उसमें