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ज्ञानयोग


युक्ति दिए बिना ही वे कहते है कि वह चाहे जिसे सुखी या दुखी करता है। फिर कुछ अधिक चिन्ताशील व्यक्तिगण मायावाद आदि के द्वारा अशुभ की व्याख्या करने की चेष्टा कर सकते है। किन्तु एक विषय सभी मतो मे अत्यन्त स्पष्ट रूप से प्रकाशित है और वह है हमारा प्रस्तावित विषय--आत्मा का मुक्त स्वभाव। ये सभी दार्शनिक मत और प्रणालियाँ केवल मन के व्यायाम और बुद्धि की कसरत मात्र हैं। एक महान उज्ज्वल धारणा है--जो मुझे विशेष स्पष्ट प्रतीत होती है, एवं जो सभी देश तथा धर्म के कुसंस्कारो के बीच प्रकाश पाती है, और वह यही है कि मनुष्य देवस्वभाव है,--देवभाव ही हमारा स्वभाव है, हम ब्रह्मस्वरूप हैं।

वेदान्त कहता है, और जो अन्य कुछ है, वह उसका उपाधि-स्वरूप मात्र है। कुछ मानो उसके ऊपर आरोपित हुआ है, किन्तु उसके देवस्वभाव का किसी से भी विनाश नहीं होता। वह जैसा अतिशय साधुप्रकृति व्यक्ति मे है, वैसा ही एक बडे पतित व्यक्ति में भी वर्तमान है। इस देवस्वभाव को जगाना पडेगा, तभी उसका कार्य होगा। हमे उसका आह्वान करना होगा, तभी वह प्रकाशित होगा। पुराने लोग समझते थे, चकमक पत्थर में आग रहती है, उसी आग को बाहर निकालने के लिये केवल इस्पात का घर्षण आवश्यक है। आग सूखी लकडी के दो टुकड़ों मे वास करती है, घर्षण केवल उस प्रकाशित करने के लिये आवश्यक है। अतएव यह अग्नि--यह स्वाभाविक मुक्तभाव और पवित्रता प्रत्येक आत्मा का स्वभाव है, आत्मा का गुण नही, क्योंकि गुण तो उपार्जित किया जा सकता है, अतएव वह फिर नष्ट भी हो सकता है। मुक्ति या मुक्त स्वभाव कहकर जो