कथा है―तत्वमसि। केवल एक मात्र नित्य आनन्दमय पुरुष ही है, और वही परम तत्व इस जगत् रूप में अनेक प्रकार से प्रकाशित होता है।
अब दार्शनिक आए। उपनिषद का कार्य यहीं समाप्त हुआ– दार्शनिक लोगो ने उसके बाद अन्यान्य प्रश्नो पर विचार आरम्भ किया। उपनिषद में मुख्य बात मिली―अब विस्तार पूर्वक व्याख्या करना, विचार करना दार्शनिक लोगो के लिए ही रहा।
यह स्वाभाविक है कि पूर्वोक्त सिद्धान्त से अनेक प्रश्न उठते हैं। यदि यही स्वीकार किया जाय कि एक निर्गुणतत्व ही परिदृश्यमान नाना रूपो में प्रकाशित होता है, तो यही जिज्ञासा होती है कि एक क्यो अनेक हुआ? यह वही प्राचीन प्रश्न है जो मनुष्य की अमार्जित बुद्धि में स्थूल भाव से उत्पन्न होता है। जगत् में दुःख अशुभ क्यो है? उसी प्रश्न ने स्थूल भाव त्यागकर सूक्ष्म रूप धारण किया है। अब फिर हमारी बाह्य दृष्टि ऐन्द्रियिक दृष्टि से वह प्रश्न नहीं पूछा जा रहा है, बल्कि भीतर से दार्शनिक दृष्टि से इस प्रश्न का विचार हो रहा है। क्या वह एक तत्व अनेक हुआ? इसका उत्तर― सर्वोत्तम उत्तर भारतवर्ष में मिला। इसका उत्तर― मायावाद―वास्तव में वह अनेक नहीं हुआ, वास्तव में उसके प्रकृत स्वरूप की लेशमात्र भी हानि नहीं हुई। यह अनेकत्व केवल आपातप्रतीयमान मात्र है, मनुष्य आपात दृष्टि से व्यक्ति रूप से प्रतीयमान हो रहा है, किन्तु वास्तव में वह निर्गुण है। ईश्वर भी आपाततः सगुण या व्यक्ति रूप से प्रतीयमान हो रहा है, यद्यपि वास्तव में वह इसी समस्न ब्रह्माण्ड में अवस्थित निर्गुण पुरुष है।