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ज्ञानयोग

यन की एक विशेष उपकारिता है। वास्तव में यह सत्य भी है, क्योंकि वेद को लोग इतनी पवित्रता की दृष्टि से देखते हैं कि संसार के अन्यान्य धर्मशास्त्रों में जिस तरह नाना प्रकार की मिलावट हुई है, वेद में वैसी नहीं होने पाई। वेद में अति उच्च विचार और निम्नतम विचारों का भी समावेश है। सार, असार, अति उन्नत विचार, और साथ ही सामान्य छोटी-छोटी बातें भी उसमें सन्निविष्ट है। किसीने भी उसमें परिवर्तन या परिवर्धन करने का साहस नहीं किया। हाँ, टीकाकारों ने अवश्य ही व्याख्या के बल से अति प्राचीन विषयों से अद्भुत-अद्भुत नये भाव निकालना आरम्भ किया, अनेक साधारण वर्णनों के भीतर वे आध्यात्मिक तत्व देखने लगे, किन्तु मूल जैसे का तैसा ही रहा—इसी मूल में ऐतिहासिक गवेषणा के अनेक विषय हैं। हम जानते है कि मनुष्य की चिन्तनशक्ति जितनी ही उन्नत होती है उतना ही वे धर्म के पूर्व भावों को परिवर्तित कर उनमें नवीन नवीन ऊँचे भावों को मिलाते हैं। यहाँ एक, वहाँ एक—इस प्रकार नई नई बातें जोड़ी जाती हैं, कहीं कहीं एक आध बात निकाल भी दी जाती है। टीकाकार की ही तो कला ठहरी! सम्भवतः वैदिक साहित्य में ऐसा नहीं किया गया। और यदि हुआ हो तो प्रथमतः उसका पता ही नहीं चलता। हमें इससे लाभ यह है कि हम विचार के मूल उत्पत्तिस्थान में पहुँच सकते हैं—देख सकते हैं कि किस प्रकार क्रमशः उच्च से उच्चतर विचारों का, किस प्रकार से स्थूल आधिभौतिक धारणाओं से लेकर सूक्ष्मतर आध्यात्मिक धारणाओं का विकास हो रहा है और अन्त में किस प्रकार वेदान्त में उन सभों की चरम परिणति हुई है। वैदिक साहित्य में अनेक प्राचीन आचार-व्यवहारों का भी आभास पाया जाता है। पर उपनिषद् में उन