बाहर होने की चेष्टा कर रहे हैं, किन्तु हम अनन्त को कभी भी यहाँ अभिव्यक्त करने में समर्थ नहीं हो सकते। हम प्राणपण से चेष्टा कर सकते हैं, परन्तु देखेंगे कि यह असंभव है। अन्त में एक समय ऐसा आयेगा जब हम देखेंगे कि जब तक हम इन्द्रियों से आबद्ध है, तब तक पूर्णता का लाभ असंभव है। तब हम जिस ओर अग्रसर हो रहे थे, उसी ओर से पीछे लौटना आरम्भ करेंगे।
इसी लौट आने का नाम त्याग है। तब हम जिस जाल के भीतर पड़े थे, उसमें से हमें निकलना होगा—तभी नीति और दया धर्म आरम्भ होगा। समस्त नैतिक अनुशासन का मूलमंत्र क्या है? 'नाहं नाहं, त्वमसि त्वमसि (तूही, तूही,)'। हमारे पीछे जो अनन्त विद्यमान है, उन्होंने अपने को बहिर्जगत् में व्यक्त करने के लिये इस 'अहं' का आकार धारण किया है। उन्हीं से इस क्षुद्र 'मैं' और 'तुम' की उत्पत्ति हुई है। अभिव्यक्ति की चेष्टा में इसी फल की उत्पत्ति हुई है, —अब इस 'मैं' को फिर पीछे हटकर अपने अनन्त स्वरूप में मिल जाना होगा। उन्हें मालूम होगा कि वे इतने दिन तक व्यर्थ की चेष्टा कर रहे थे। उन्होंने अपने को भँवर में डाला है—उन्हें इस भँवर से बाहर निकलना होगा। प्रत्येक दिन यही हमें प्रत्यक्ष होरहा है। जितने बार तुम कहते हो 'नाहं नाहं, त्वमसि त्वमसि' उतने ही बार तुम लौटने की चेष्टा करते हो, और जितने बार तुम अनन्त को यहाँ अभिव्यक्त करने में सचेष्ट होते हो, उतने ही बार तुम्हें कहना होगा 'अहं, अहं, न त्वम्'। इसीसे संसार में प्रतिद्वन्द्विता, संघर्ष और अनिष्ट की उत्पत्ति होती है, किन्तु अन्त में त्याग, अनन्त त्याग का आरम्भ होगा ही। 'मैं' मर जायगा। अपने जीवन के लिये उस समय कौन यत्न करेगा? यहाँ रहकर इस जीवन का उपभोग करने