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अपरोक्षानुभूति


खाता, परन्तु एक दूसरे को ठगा खूब करता है। मनुष्य प्रतारणा करके नगर का नगर, देश का देश ध्वस कर डालता है। निश्चय ही यह किसी बहुत बड़ी उन्नति का परिचायक नही है। और तुम लोग जिसे उन्नति कहते हो, उसे भी मैं बडा नही समझता--वह तो वासना की लगातार वृद्धि मात्र है। यदि मुझे कोई विषय अति स्पष्ट रूप से ज्ञात होता है, तो वह यही है कि वासना से केवल दुःख का ही आगमन होता है--वह तो याचक की अवस्था मात्र है। सर्वदा ही कुछ न कुछ के लिये याचना करना--किसी दूकान आदि मे जाकर किसी न किसी वस्तु के पाने की इच्छा रहती ही है। बस चाहना, चाहना, चाहना! सारा जीवन ही केवल तृष्णाग्रस्त याचक की अवस्था है--वासना की दुनिवार तृष्णा है। यदि वासना पूर्ण करने की शक्ति समयुक्तान्तर श्रेणी (Arithmetical progression) के नियमानुसार बटे, तो वासना की शक्ति समगुणितान्तर श्रेणी (Geometrical progression) के नियमानुसार बढती है। अनन्त जगत् के समस्त सुखदुःख की समष्टि सर्वदा ही समान है। समुद्र मे यदि एक तरग कही से उठती है, तो निश्चय कही पर एक गर्त उत्पन्न होगी। यदि किसी मनुष्य को सुख प्राप्त हुआ है, तो निश्चय ही किसी दूसरे मनुष्य या पशु को दुख हुआ है। मनुष्य की सख्या बढ रही है, पशु की संख्या घट रही है। हम उनका विनाश करके उनकी भूमि छीन रहे है, हम उनका समस्त खाद्यद्रव्य छीन रहे है। तब हम किस तरह कहे कि सुख लगातार बढ रहा है? प्रबल जाति दुर्बल जाति का ग्रास कर रही है, किन्तु तुम लोग क्या समझते हो कि प्रबल जाति कुछ सुखी होगी? नहीं, वे एक दूसरे का सहार ही करेगी, मेरी समझ में नहीं आता कि सुख का युग किस तरह आयेगा। यह तो