वस्तुतः दर्शनशास्त्र मे आनन्दत्याग करने का उपदेश नहीं दिया गया है। प्रकृत आनन्द क्या है इसी का उपदेश दिया गया है। नार्वेवासियों की स्वर्ग के सम्बन्ध में धारणा ऐसी है कि वह एक भयानक युद्धक्षेत्र है, वहाॅ सभी लोग जाकर वोडन (woden) देवता के सम्मुख बैठते है। कुछ समय के बाद जंगली सूअरों का शिकार आरम्भ होता है। बाद मे वे आपस में ही युद्ध करते हैं और एक दूसरे को खण्ड विखण्ड कर डालते है। किन्तु इस प्रकार के युद्ध के थोड़ी देर बाद ही किसी न किसी रूप से उन लोगों के घाव ठीक हो जाते है, उस समय वे एक हॉल मे जाकर उसी सूअर के मांस को पका कर खाते तथा आमोद-प्रमोद करते है। उसके दूसरे दिन वह सूअर जीवित हो जाता है और फिर उसी तरह शिकार आदि होता है। यह हमारी धारणा के अनुरूप ही है, अन्तर इतना ही है कि हमारी धारणा कुछ अधिक परिष्कृत है। इस प्रकार हम सभी सूअर का शिकार करना चाहते है--हम एक ऐसे स्थान में जाना चाहते है, यहाॅ ये भोग पूर्ण मात्रा मे लगातार चलते रहे--ठीक उसी प्रकार जैसे नार्वेवासी सूअर की कल्पना करते है।
दर्शनशास्त्र के मत मे निरपेक्ष अपरिणामी आनन्द नामक पदार्थ है, अतएव हम साधारणतया जो ऐहिक सुखोपभोग करते है, उसके साथ इस सुख का कोई सम्बन्ध नहीं है। किन्तु फिर वेदान्त ही केवल प्रमाणित करता है कि इस जगत् मे जो कुछ आनन्दकारी है, वह उसी प्रकृत आनन्द का अंश मात्र है, क्योंकि उस ब्रह्मानन्द का ही वास्तविक अस्तित्व है। हम प्रतिक्षण उसी ब्रह्मानन्द का उपभोग करते है, किन्तु यह नहीं जानते कि वह ब्रह्मानन्द है। जहाॅ