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ज्ञानयोग


से पार होगये है, हम लोग जिसे धर्म कहते है, और जिसे अधर्म कहते है, और शुभाशुभ सब कर्म, एवं सत् असत्, इन सभों से वे पार होगये है,--जिन्होंने उन्हे देखा है, उन्होंने ही यथार्थ सत्य का दर्शन किया है। किन्तु फिर स्वर्ग का क्या हुआ? स्वर्ग के सम्बन्ध मे हम लोगों की ऐसी धारणा है कि वह दुःखशून्य सुख है; अर्थात् हम संसार के सभी सुख चाहते है, और उसके दुःखों को केवल छोड़ देना चाहते है। अवश्य यह अत्यन्त सुन्दर धारणा है, यह स्वाभाविक भाव से ही आती है, किन्तु यह धारणा सम्पूर्ण भ्रमात्मक है, कारण, पूर्ण सुख या पूर्ण दुःख नाम का कोई पदार्थ नहीं है।

रोम मे एक व्यक्ति बड़ा धनी था। उसने एक दिन सुना कि उसकी सम्पत्ति मे केवल दस लाख पौण्ड शेष है। सुनते ही उसने कहा--तब मै कल क्या करूॅगा? और यह कह कर उसी समय उसने आत्महत्या कर ली! दस लाख पौण्ड उसके लिये दारिद्रयसूचक था, किन्तु हम लोगो के लिये वैसा नहीं है। वह तो हमारे सम्पूर्ण जीवन की आवश्यकता से भी अधिक है। वास्तविक सुख ही क्या है, और दुःख ही क्या? वे लगातार विभिन्न रूप धारण करते रहते है। मैं जब छोटा था, तो सोचता था--जब मै गाड़ी चलाने लगूॅगा तो सुख की पराकाष्ठा को प्राप्त करूॅगा। इस समय मैं ऐसा नहीं समझता। अब तुम कौनसे सुख को पकड़े रहोगे? यही हमे विशेषकर समझने की चेष्टा करना उचित है। और हमारा यह कुसस्कार नष्ट होने में बहुत विलम्ब लगता है। प्रत्येक के सुख की धारणा अलग अलग है। हमने एक आदमी को देखा है, जो प्रतिदिन प्रचुर अफीम खाये बिना सुखी नही होता था। वह शायद सोचता होगा, स्वर्ग की मिट्टी अफीम की ही बनी