तो यह जगत् पॉच मिनट मे कुछ दूसरा ही हो जाता। हम सभी नास्तिक है, परन्तु जो व्यक्ति उसे स्पष्ट स्वीकार करता है, उससे हम विवाद करने को प्रस्तुत होते है। हम लोग सभी अन्धकार में पड़े हुए है। धर्म हम लोगों के समीप मानो कुछ नहीं है, केवल विचारलब्ध कुछ मतों का अनुमोदन मात्र है, केवल मुॅह की बात है--अमुक व्यक्ति खूब अच्छी तरह से बोल सकता है, अमुक व्यक्ति नहीं बोल सकता, यही हमलोगों का धर्म है--शब्द-योजना करने की सुन्दर कुशलता, अलङ्कारिक शब्दों मे वर्णन करने की क्षमता, शास्त्रों के श्लोकों की अनेक प्रकार से व्याख्या, ये सभी केवल पण्डितों के आमोद के निमित्त है--मुक्ति के लिये नहीं। आत्मा की जब यह प्रत्यक्षानुभूति आरम्भ होगी, तभी धर्म आरम्भ होगा। उसी समय तुम धार्मिक होगे, एवं उसी समय, केवल उसी समय नैतिक जीवन भी प्रारम्भ होगा। इस समय हम रास्ते के पशुओं की अपेक्षा भी कोई विशेष अधिक नीतिपरायण नहीं है। हमलोग इस समय केवल समाज के शासन के भय से ही कुछ गडबड़ नहीं करते। यदि समाज आज कहे--चोरी करने से अब दण्ड नहीं मिलेगा तो हमलोग इसी समय दूसरे की सम्पत्ति
लूटने के लिये व्यग्र होकर दौड़ पड़ेगे। हम लोगों के सच्चरित्र होने
मे एकमात्र कारण पुलिस है। सामाजिक प्रतिष्ठा-लोप की आशंका ही हमलोगों के नीतिपरायण होने मे बहुधा कारण है, और वस्तुस्थिति तो यह है कि हम पशुओ से बिलकुल थोडासा ही उन्नत है। हम लोग जब अपने अपने घर के एकान्त कोने में बैठकर अपने हृदय के भीतर अनुसधान करेगे तभी समझ सकेगे कि यह बात कितनी सत्य है। अतएव आओ, हमलोग इस कपटता का त्याग करे। आओ, स्वीकार करे कि हमलोग धार्मिक नही है और दूसरों के प्रति घृणा करने का
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