फिर यह सत्य समझना भी कठिन है। बहुत से तो लगातार इस विषय को सुन कर भी समझ नहीं पाते, इस विषय का वक्ता भी आश्चर्यजनक होना आवश्यक है और श्रोता भी। गुरु का भी अद्भुत शक्तिसम्पन्न होना आवश्यक है और शिष्य भी उसी तरह का होना ज़रूरी है। मन को फिर वृथा तर्क के द्वारा चंचल करना उचित नहीं है। कारण, परमार्थ तत्व तर्क का विषय नहीं है, वह तो प्रत्यक्ष अनुभूति का विषय है। हमलोग बराबर सुनते आरहे हैं कि प्रत्येक धर्म विश्वास करने पर जोर देता है। हमलोगों के कानों में तो अन्ध विश्वास शब्द ही भर दिया गया है।
यह अन्ध विश्वास सचमुच ही बुरी वस्तु है, इसमे कोई संदेह नहीं। पर यदि इस अंध विश्वास का हम विश्लेषण करके देखे तो ज्ञात होगा कि इसके पीछे एक महान् सत्य है। जो लोग अन्ध विश्वास की बात कहते हैं, उनका वास्तविक उद्देश्य यही अपरोक्षानुभूति है जिसकी हम इस समय आलोचना कर रहे हैं। मन को व्यर्थ ही तर्क के द्वारा चंचल करने से काम नहीं चलेगा, क्योंकि तर्क से कभी ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती। ईश्वर प्रत्यक्ष का विषय है, तर्क का नहीं। समुदय तर्क ही कुछ सिद्धान्तों के ऊपर स्थापित है। इन सिद्धान्तों को छोड़कर तर्क हो ही नहीं सकता। हमलोगों ने जिन्हें पहले निश्चित रूप में प्रत्यक्ष कर लिया है, उस तरह के कुछ विषयों की तुलना की प्रणाली को युक्ति कहा जाता है। इन निश्चित प्रत्यक्ष विषयों के न होने पर युक्ति चल ही नहीं सकती। और बाह्य जगत् के सबन्ध में यदि यह सत्य है, तो अन्तर्जगत् के सम्बन्ध में भी ऐसा ही क्यों न होगा?