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अपरोक्षानुभूति

होता है। यह सब तो जड़ जगत् की ही वस्तु ठहरी, इससे कुछ अधिक अच्छी अवश्य है बस इतना ही। और जब हमने पहले ही देखा है कि यह जड़ जगत् पूर्वोक्त समस्या की कोई मीमांसा नहीं कर सकता, तो स्वर्ग से भी उसकी क्या मीमांसा हो सकती है? इसलिये स्वर्ग के ऊपर स्वर्ग की कितनी भी कल्पना क्यों न करो, परन्तु समस्या की उपयुक्त मीमांसा इससे नहीं हो सकती। यदि यह जगत् इस समस्या की कोई मीमांसा नहीं कर सकता, तो इस तरह के चाहे कितने भी जगत् हों वे किस तरह इसकी मीमांसा करेंगे। कारण, हमें स्मरण रखना उचित है कि स्थूल भूत प्राकृतिक समुदय व्यापारों का एक अत्यन्त सामान्य अंश मात्र है। हम लोग जिन अगण्य घटनाओं को वास्तविक देखा करते हैं, वे भौतिक नहीं है।

अपने जीवन के प्रति क्षण को देखिये, मालूम होगा कि हमारे चिन्तन के व्यापार कितने हैं, और बाहर की वास्तविक घटनायें कितनी हैं। कितनों का तुम केवल अनुभव करते हो, और कितनों का वास्तविक दर्शन तथा स्पर्श करते हो? यह जीवन-प्रवाह कितने प्रबल वेग से चलता है—इसका कार्यक्षेत्र भी कितना विस्तृत है—किन्तु इसमें मानसिक घटनाओं की तुलना में इन्द्रियग्राह्य व्यापार कितना स्वल्प है! स्वर्गवाद का भ्रम यही है कि वह कहता है कि हम लोगों का जीवन और जीवन की घटनावली केवल रूप-रस-गन्ध-स्पर्श और शब्द में ही आबद्ध है। किन्तु इस स्वर्ग से, जहाँ पर ज्योतिर्मय शरीर मिलता है, अधिकांश लोगों को तृप्ति नहीं हुई। तथापि इस जगह नचिकेता ने द्वितीय वर से स्वर्ग-प्रापक यज्ञ सम्बन्धी ज्ञान की प्रार्थना की है। वेद के प्राचीन भाग में वर्णित है कि देवतागण यज्ञ द्वारा संतुष्ट होकर लोगों को स्वर्ग ले जाते हैं।