१२. अपरोक्षानुभूति
मैं तुम लोगों को एक और उपनिषद से कुछ अंश पढ़कर सुनाऊँगा। यह अत्यन्त सरल एवं अतिशय कवित्वपूर्ण है। इसका नाम है कठोपनिषद्। सर एडविन अर्नाल्ड कृत इसका अनुवाद शायद तुममें से बहुतों ने पढ़ा होगा। हम लोगों ने पहले देखा ही है कि जगत् की सृष्टि कहाँ से हुई। इस प्रश्न का उत्तर बाह्य जगत् से नहीं पाया जा सकता, अतः इस प्रश्न के समाधान के लिये लोगों की दृष्टि अन्तर्जगत् की ओर आकृष्ट हुई। कठोपनिषद् में मनुष्य के स्वरूप के सम्बन्ध में यह अनुसन्धान आरम्भ हुआ है। पहले यह प्रश्न होता था कि इस वाह्य जगत् की सृष्टि किसने की? इसकी उत्पत्ति कैसे हुई?—इत्यादि। किन्तु अब यह प्रश्न उत्पन्न हुआ कि मनुष्य के अन्दर कौन सी ऐसी वस्तु है जो उसे जीवित रखती है और उसे चलाती है, एवं मृत्यु के बाद मनुष्य का क्या होता है? पहले मनुष्य ने इस जड़ जगत् को लेकर क्रमशः इसके आभ्यन्तर में पहुँचने की चेष्टा की थी और इससे उसने पाया जगत् का एक जबरदस्त शासक—एक व्यक्ति—एक मनुष्य मात्र। हो सकता है कि मनुष्य के गुणसमूह को अनन्त परिमाण में बढ़ाकर, वे उसके नाम के साथ जोड़ दिए गये हो, किन्तु कार्यतः वह एक मनुष्य मात्र है। परन्तु यह मीमांसा कभी पूर्ण सत्य नहीं हो सकती। अधिक से अधिक इसे आंशिक सत्य कह सकते हैं। हम लोग इस जगत् को मानवीय दृष्टि से देखते हैं, और हमलोगों का ईश्वर इस जगत् की मानवीय व्याख्या मात्र है।