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माया

है। यही माया है। इस रहस्य की आप क्या मीमांसा करते है? हम प्रतिदिन ही नई नई युक्तियाँ सुनते है। कोई कहते है, अन्त में सब का कल्याण होगा। इस प्रकार की सम्भावना अत्यन्त संदेहास्पद होने पर भी हम ने स्वीकार कर ली। किन्तु इस पैशाचिक उपाय से मंगल होने का कारण क्या है? पैशाचिक रीति को छोड़ कर क्या मंगल द्वारा ही मंगलसाधन नहीं हो सकता? वर्तमान मनुष्यो की सन्तान सुखी होगी; किन्तु उससे हमे क्या फल मिलेगा जिसके लिये हम इस समय ये भयानक यन्त्रणाये भोग रहे है? यही माया है। इसकी मीमांसा नहीं है। सुना जाता है कि दोषों का क्रमश: धीरे धीरे दूर होता जाना क्रमविकासवाद ( Darwin's Evolution ) की एक विशेषता है; संसार से दोष का इस प्रकार क्रमश: दूर हो जाने पर अन्त में केवल मंगल ही मंगल रह जायगा। सुनने में तो बड़ा अच्छा लगता है। इस संसार में जिसके पास सब वस्तुओ का प्राचुर्य है, जिन्हे प्रतिदिन कठोर यन्त्रणा सहनी नहीं पड़ती, जिन्हे क्रमविकास के चक्र में पिसना नहीं पड़ता, उन लोगों के दम्भ को इस प्रकार के सिद्धान्त बढ़ा सकते है। सचमुच ही उनके लिये ये सिद्धान्त अत्यन्त हितकर और शान्तिप्रद हैं। साधारण जनसमूह यन्त्रणा भोगा करे—इनकी क्या हानि है? वे सत्र मारे जायें―इसके लिये ये सोच विचार क्यों करे? ठीक बात है, किन्तु यह युक्ति आदि से अन्त तक भ्रमपूर्ण है। प्रथम तो, ये लोग विना किसी प्रमाण के ही धारणा कर लेते हैं कि संसार में अभिव्यक्त मंगल और अमंगल का परिणाम एकदम निर्दिष्ट है। दूसरे, इससे भी अधिक दोपयुक्त धारणा यह है कि मंगल का परिमाण तो क्रमवृद्धि- शील है और अमंगल निर्दिष्ट परिमाण में विद्यमान रहता है। अतएव ऐसा समय आयेगा कि जब अमंगल का अंश इसी प्रकार क्रमविकास