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ज्ञानयोग

तक वह हमारे रक्त के प्रत्येक बिन्दु में, कण कण में प्रवेश नहीं करता, जब तक वह हमारे शरीर के अणु-परमाणु में व्याप्त नहीं हो जाता। अतएव यह आत्मतत्व पहले हमे सुनना होगा। कहा गया है कि 'हृदय भावोच्छ्वासो से पूर्ण होने पर ही मुख वाक्य का उच्चारण करता है।' इसी प्रकार हृदय पूर्ण होने पर हाथ भी कार्य करता है।

चिन्ता ही हमारी कार्यप्रवृत्ति की नियामक है। मन को सर्वोच्च चिन्ता द्वारा पूर्ण करके रक्खो, दिनानुदिन ये सभी भाव सुनते रहो, मास प्रति मास इसका चिन्तन करो। पहले पहल सफलता न मिले; कोई हानि नहीं, यह विफलता तो स्वाभाविक ही है, यह तो मानव- जीवन का सौन्दर्य स्वरूप है। इस प्रकार की विफलता न होती तो जीवन क्या होता? यदि जीवन में इस विफलता को जय करने की चेष्टा न रहती, तो जीवन धारण करने का कोई प्रयोजन ही न रह जाता। उसके न रहने पर जीवन की कविता कहाँ रहती? यह विफलता, यह भ्रम रहने से भी क्या हर्ज है? गाय कभी झूठ बोलते नहीं सुनी जाती, किन्तु वह सदा गाय ही रहती है, मनुष्य कभी नहीं हो जाती। अतएव बार बार असफल हो जाओ तो भी कोई हानि नहीं है, सहस्रों बार, बार बार इस आदर्श को हृदय में धारण करो, किन्तु सहस्र बार असफल होने पर फिर एक बार प्रयत्न करो। सब जीवो में ब्रह्मदर्शन ही मनुष्य का आदर्श है। यदि सब वस्तुओ में उसको देखने में तुम सफल न हो तो कम से कम एक ऐसे व्यक्ति में कि जिसको तुम सब से अधिक प्रेम करते हो, उसका दर्शन करने की चेष्टा करो―उसके बाद एक अन्य व्यक्ति में दर्शन करने की चेष्टा करो―इसी प्रकार तुम आगे बढ़ सकते हो।