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सभी वस्तुओं में ब्रह्मदर्शन

आनन्द की खान पड़ी हुई है, किन्तु वे उसको खोज निकाल नहीं पाते। आसुरी जगत् का अर्थ क्या है? वेदान्त कहता है―अज्ञान।

वेदान्त कहता है कि हम अनन्त जल से पूर्ण नदी के तट पर रह कर भी प्यास से मर रहे है। ढेरो खाद्य सामने रखा है, फिर भी भूखों मर रहे है। यह आनन्दमय जगत् यही विद्यमान है। परन्तु हम उसे खोज नहीं पाते। हम उसी में रह रहे है। वह सर्वदा ही हमारे चारो ओर रहता है, परन्तु हम उसे सदा ही कुछ और समझ कर भ्रम में पड़ जाते हैं। विभिन्न सभी धर्म हमारे सामने उस आनन्दमय जगत् को दिखाने को आगे आते हैं। सभी हृदय इस आनद की खोज कर रहे है। सभी जातियो ने इसकी खोज की है, वर्मों का यही एक मात्र लक्ष्य है, और यही आदर्श विभिन्न भाषाओ में भी प्रकाशित हुआ है; भिन्न भिन्न धर्मों में जो सब छोटे छोटे मतभेद है, वे सब केवल कहने के दॉवपेच है, वास्तव में कुछ भी नहीं है। एक व्यक्ति एक भाव को एक प्रकार से प्रकट करता है, दूसरा दूसरी प्रकार, किन्तु मैं जो कुछ कहता हूँ, शायद तुम वही बात दूसरे प्रकार की भाषा में व्यक्त कर रहे हो। फिर भी मैं शायद अकेले ही प्रसिद्ध होने की आशा में, अथवा अपने मन के अनुसार चलना पसन्द करता हूँ और इसलिये कहता हूँ―'यह मेरा मौलिक मत है।' इन्ही कारणो से हमारे जीवन में परस्पर ईर्ष्या, द्वेष आदि की उत्पत्ति होती है।

इस सम्बन्ध में अब और भी प्रश्न आते है। जो ऊपर कहा गया है वह मुख से कह देना तो अत्यन्त सरल है। वचपन से ही सुनता आ रहा हूँ―सर्वत्र ब्रह्मबुद्धि करो―सब ब्रह्ममय हो जायगा―

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