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सभी वस्तुओं में ब्रह्मदर्शन


कर लेगी। संसार का प्रत्येक कोना, प्रत्येक अँधेरी गली, वीहड़ मार्ग और सभी छिपे हुये स्थान जिन्हे हमने पहले इतना अपवित्र समझा था, जिन सब के ऊपर का दाग हमे इतना काला दीखता था, सब कुछ ब्रह्मभाव धारण कर लेगा। वे सभी अपने प्रकृत स्वरूप को प्रकाशित करेगे। तब हम अपने आप ही हॅसेगे और सोचेगे, यह सब रोदन और चीत्कार केवल बच्चों का खेल है, और हम जननी रूप मे खड़े होकर बराबर यह खेल देख रहे थे।

वेदान्त कहता है कि इस प्रकार के भाव को आश्रय करने से ही हम ठीक ठीक कार्य करने में समर्थ होगे। वेदान्त हमे कार्य करने का निषेध नही करता, परन्तु यह भी कहता है कि पहले संसार का त्याग करना होगा, इस आपातप्रतीयमान माया के जगत् का त्याग करना होगा। इस त्याग का अर्थ क्या है? पहले ही कहा जा चुका है कि त्याग का प्रकृत अर्थ है सब जगह ईश्वरदर्शन, सब जगह ईश्वरबुद्धि कर लेने पर ही हम वास्तविक कार्य करने में समर्थ होंगे। यदि इच्छा हो तो सौ वर्ष जीने की इच्छा करो, जितनी भी सांसारिक वासनाये हैं, सब भोग कर लो, केवल उन सब को ब्रह्मस्वरूप मे दर्शन करो, उनको स्वर्गीय भावना में परिणत कर लो, उसके बाद चाहे सौ वर्ष जीवन धारण करो। इस जगत् मे दीर्घ काल तक आनन्दपूर्ण होकर कार्य करते हुये सम्भोग करने की इच्छा करो। इसी प्रकार कार्य करने पर तुम्हे वास्तविक मार्ग मिल जायगा। इसे छोड कर अन्य कोई मार्ग नहीं है। जो व्यक्ति सत्य को न जान कर अबोध की भाँति संसार के विलास-विभ्रम में निमग्न होता है, समझ लो कि उसे प्रकृत मार्ग मिला नहीं, उसका पैर फिसल गया है। दूसरी ओर जो