अधिकांश धर्म, 'जगत् में दु:खराशि विद्यमान है' यह बात समझते है और स्पष्ट भाषा में ही इसका उल्लेख करते है अवश्य, किन्तु मालूम होता है, सभी एक ही भ्रम में पड़ गये है, वे सभी हृदय के द्वारा, भावों के द्वारा परिचालित होते है। जगत् में दुःख है, अतएव इसका त्याग करो-यह बहुत अच्छा उपदेश है, एक मात्र उपदेश है, इसमे सन्देह नहीं। 'संसार का त्याग करो!' सत्य जानने के लिये असत्य का त्याग करना होगा―अच्छी वस्तु पाने के लिये बुरी वस्तु का त्याग करना होगा, जीवन प्राप्त करने के लिये मृत्यु का त्याग करना होगा, इस विषय में कोई दो मत नहीं हो सकते।
किन्तु यदि इन मतों का यही तात्पर्य है कि पाँच इन्द्रियों का जीवन―हम जिसे जीवन नाम से समझते है, उसका त्याग करना होगा तब फिर हमारे पास क्या शेष रहता है? यदि हम उसे त्याग करे तो हमारे पास कुछ भी नहीं रहता।
जब हम वेदान्त के दार्शनिक अंश की आलोचना करेगे तब हम इस तत्व को और भी अच्छी तरह समझेगे, किन्तु आपाततः मैं केवल यही कहना चाहता हूँ कि केवल वेदान्त में इस समस्या की युक्तिसङ्गत मीमासा मिलती है, इस समय केवल वेदान्त का वास्तव में उपदेश क्या है, वही कहूँगा―वेदान्त शिक्षा देता है, जगत् को ब्रह्म स्वरूप देखो।
वेदान्त वास्तव में जगत् को एकदम उड़ा देना नहीं चाहता। वेदान्त में जिस प्रकार चूड़ान्त वैराग्य का उपदेश है, और कहीं भी वैसा नहीं है, किन्तु इस वैराग्य का अर्थ आत्महत्या नहीं है―स्वयँ