उलटा ही समझते है, और वे धर्म भी इस विषय में एकदम स्पष्ट करके कुछ भी नहीं कहते। मस्तिष्क एवं हृदय दोनो की ही हमे आवश्यकता है। हृदय अवश्य ही बहुत श्रेष्ठ है--हृदय के भीतर से ही जीवन को उच्च पथ पर ले जाने वाले महान् भावों का स्फुरण होता है। हृदयशून्य केवल मस्तिष्क की अपेक्षा यदि मेरे पास कुछ भी मस्तिष्क न हो, किन्तु थोड़़ासा भी हृदय रहे तो मैं उसे सैकड़ो बार पसन्द करूॅगा। जिसके पास हृदय है उसीका जीवन सम्भव है, उसीकी उन्नति सम्भव है, किन्तु जिसके पास तनिक भी हृदय नही है, केवल मस्तिष्क है, वह सूख कर मर जाता है।
किन्तु हम यह भी जानते है कि जो केवल अपने हृदय के द्वारा परिचालित होते है उन्हे अनेक कष्ट भोग करने पड़ते है, कारण उनकी प्राय: ही भ्रम में पड़ने की सम्भावना रहती है। हमको चाहिये हृदय और मस्तिष्क का सम्मिलन। मेरे कहने का अर्थ यह नहीं है कि कुछ हृदय और कुछ मस्तिष्क लेकर हम दोनो का सामञ्जस्य करे, किन्तु प्रत्येक व्यक्ति का अनन्त हृदय हो और उसके साथ साथ अनन्त परिमाण मे विचारबुद्धि भी रहे।
इस जगत् मे हम जो कुछ चाहते है उसकी क्या कोई सीमा है? क्या जगत् अनन्त नहीं है? जगत् मे अनन्त परिमाण में भावों के (हृदय के) विकास का और उसके साथ साथ अनन्त परिमाण मे शिक्षा और विचार का भी अवकाश या सम्भावना है। वे दोनों ही अनन्त परिमाण में आये--वे दोनो ही समानान्तर रेखा मे प्रवाहित होते रहे।