अवश्य है। पाश्चात्य लोगो के समान हिन्दू भी क्रियात्मक रूप चाहते हैं, परन्तु दोनो का दृष्टिकोण भिन्न है। पश्चिमी लोग कहते है, एक अच्छा सा मकान बनाओ, उत्तम भोजन करो, उत्तम वस्त्र पहिनो, विज्ञान की चर्चा करो, बुद्धि की उन्नति करो। ये सब करने के समय वे अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होते है। किन्तु हिन्दू लोग कहते हैं, आत्मज्ञान ही जगत् का ज्ञान हैं। वे उसी आत्मज्ञान के आनन्द में विभोर हो कर रहना चाहते हैं। अमेरिका में एक प्रसिद्ध अज्ञेयवादी वक्ता है, वे अत्यन्त सन्जन और एक बड़े सुन्दर वक्ता भी है। वे धर्म के सम्बन्ध में एक व्याख्यान देते और कहते है कि धर्म की कोई आवश्यकता नहीं है, परलोक को लेकर अपना मस्तिष्क खराब करने की हमे तनिक भी आवश्यकता नहीं है। अपने मत को समझाने के लिये उन्होंने इस उदाहरण को लेकर कहा है―जगत् रूप यह सन्तरा हमारे सामने है, हम उसका सब रस बाहर निकाल लेना चाहते है। मेरी एक बार उनसे भेट हुई। मैंने उनसे कहा-"मेरा आप के साथ एकमत है, मेरे पास भी यही फल है, मैं भी इसका सब रस लेना चाहता हूँ। किन्तु आपसे मेरा मतभेद है केवल इस विषय को लेकर कि यह फल है क्या। आप इसे सन्तरा समझते है और मैं कहता हूँ यह आम है। आप समझते हैं कि जगत् में आकर खूब खा पीकर, पहिन कर और कुछ वैज्ञानिक तत्व जानकर ही बस चूडान्त हो गया, किन्तु आपको यह कहने का कोई अधिकार नहीं है कि इसे छोड़कर मनुष्य का और कोई कर्तव्य ही नहीं है। मेरे लिये तो यह धारणा बिलकुल ही छोटी है।"
यदि जीवन का एक मात्र कार्य यह जानना ही हो कि सेब