वहूनां यो विदधाति कामान्। तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां शान्तिः शाश्वती नेतरेपाम्।" (कठ० अ० २, वल्ली २, श्लोक १३) "जो अनित्य वस्तुओ मे नित्य है, जो चेतना वालो मे चेतन है, जो एकाकी अनेको की सभी काम्य वस्तुओ का विधान करता है, उसका जो ज्ञानी लोग अपने अन्दर दर्शन करते है, उन्ही को नित्य शान्ति मिलती है, औरों को नहीं।" बाह्य जगत् मे वह कहाॅ मिल सकता है। सूर्य चन्द्र अथवा तारे उसको कैसे पा सकते है? "न तत्र सूर्यो भाति, न चन्द्रतारक, नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्नि', तमेव भान्तमनुभाति सर्वं, तस्य भासा सर्वमिद विभाति।" (कठ० अ० २, वल्ली २, श्लोक १५) "वहाॅ सूर्य प्रकाश नहीं देता, चन्द्र तारे आदि नहीं चमकते, ये बिजलियाॅ भी नहीं चमकतीं, फिर अग्नि की क्या बात? सभी वस्तुये उस प्रकाशमान से ही प्रकाशित होती है, उसी की दीप्ति से सब दीप्त होते है।" "ऊर्ध्वमूलोऽवाक्शाखः एषोऽश्वत्थ सनातनः। तदेव शुक्र तद्ब्रह्म तदेवामृतमुच्यत। तस्मॅिल्लोकाः श्रिताः सर्वे तदु नात्यति कश्चन। एतद्वैतत्।" (कठ० अ० २, वल्ली ३, श्लोक १) "ऊपर की ओर जिसका मूल और नीचे की ओर जिसकी शाखाये है ऐसा यह चिरतन अश्वत्थ वृक्ष (ससार वृक्ष) है। वही उज्ज्वल है, वही ब्रह्म है, उसी को अमृत कहते है। समस्त संसार उसी मे आश्रित है। कोई उसको अतिक्रमण नही कर सकता। यही वह आत्मा है।"
वेद के ब्राह्मण भाग मे नाना प्रकार के स्वर्गों की कथाये है।
उपनिषद का यही कहना है कि स्वग जाने की इस वासना का त्याग करना होगा। इन्द्रलोक या वरुणलोक जाने से ही ब्रह्मदर्शन होगा यह बात नहीं है, वरञ्च इस आत्मा के अन्दर ही ब्रह्म का दर्शन