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ज्ञानयोग

हमारी बुद्धि, ज्ञान, जीवन, प्रत्येक घटना में यही विषम विरुद्ध भाव दिखाई पड़ता है। सुख दुःख का और दुःख सुख का अनुगामी हो रहा है। सुधारक आते है और किसी जाति के दोषों को दूर करने का प्रयत्न करते है, किन्तु इसी बीच में किसी दूसरी दिशा में वीस हजार दोष उस सुधार से पहले ही उठ खड़े होते है। पतनो- न्मुख जीर्ण अट्टालिका की भाँति एक स्थान पर जीर्णोद्धार करते करते दूसरे स्थान पर जीर्णता आक्रमण कर देती है। भारतीय स्त्रियों के बालविधवा हो जाने के दोष को दूर करने के लिये हमारे सुधारक लोग चीत्कार तथा प्रचार कर रहे है। किन्तु पाश्चात्य देशों में अविवाहित रहना ही प्रधान दोष माना जाता है। एक स्थान पर अविवाहिताओ का कष्ट दूर करने में सहायता करनी होगी तो दूसरे स्थान पर विधवाओं का कष्ट मिटाने का यत्न करना होगा; शरीर में पुरानी बातव्याधि के समान शिरःस्थान से हटाने पर यह कमर आदि का आश्रय, ले लेती है, वहाँ से हटाने पर पैरौ का आश्रय ढूँढती है।

कोई कोई दूसरों की अपेक्षा अधिक धनवान हो गये है― विद्या, सम्पत्ति और ज्ञानानुशीलन केवल उन्हीं की सम्पत्ति हो गये हैं। ज्ञान कितना महत्तर और मनोहर है, ज्ञानानुशीलन कितना सुन्दर है! यह केवल कुछ लोगों के हाथ में है। कितनी भयानक बात है। अब सुधारक आये और सर्वसाधारण में इस ज्ञान का विस्तार करने लगे। इससे जनसाधारण एक प्रकार से कुछ सुखी हुए अवश्य, किन्तु ज्ञानानुशीलन जितना ही अधिक होने लगा, शारीरिक सुख शायद उतना ही अन्तर्हित होने लगा। अब कौन से मार्ग का अव- लम्बन किया जाय?―क्योकि सुख के ज्ञान से ही तो दुःख का