का विश्लेषण करता है---किसी भी विषय को छिपाकर रखना नहीं चाहता। वह मनुष्य को एकदम निराशा के सागर मे नही बहा देता। वह अज्ञेयवादी भी नहीं है। उसने इस सुख-दुःख के प्रतीकार के उपाय का आविष्कार किया है, और यह प्रतीकार का उपाय वज्र के समान दृढ़ भित्ति पर प्रतिष्ठित है। वह ऐसा उपाय नहीं बताता जिससे कि केवल बच्चे का मुँह बन्द कर दिया जाय एवं जिसे वह सहज में ही समझ ले, ऐसे स्पष्ट असत्य के द्वारा उसकी दृष्टि को अन्धा कर दिया जाय। मुझे याद है, जब मैं बालक था उस समय किसी युवक के पिता मर गये जिससे वह बड़ा गरीब हो गया, एक बड़े परिवार का भार उसके गले पड़ गया। उसने देखा कि उसके पिता के मित्र लोग ही उसके प्रधान शत्रु है। एक दिन एक धर्माचार्य के साथ साक्षात् होने पर वह अपने दुःख की कहानी कहने लगा और वे उसको सान्त्वना देने के लिये कहने लगे, "जो होता है अच्छा ही होता है, जो कुछ होता है अच्छे के लियेही होता है।" पुराने घाव को जिस प्रकार मखमल के कपड़े से ढक रखना होता है, धर्माचार्य की उपर्युक्त बात भी ठीक वैसी ही थी। यह हमारी अपनी दुर्बलता और अज्ञान का परिचय मात्र है। छ मास के बाद उसी धर्माचार्य के घर एक सन्तान हुई, उसके उपलक्ष्य मे जो उत्सव हुआ उसमे वह युवक भी निमत्रित था। धर्माचार्य महोदय भगवान् की पूजा आरम्भ करके बोले---ईश्वर की कृपा के लिये उसे धन्यवाद है।' तब युवक उठकर बोला---'यह क्या कह रहे है? उसकी कृपा कहाँ है? यह नो घोर अभिशाप है।' धर्माचार्य ने पूछा---'वह कैसे?' युवक ने उत्तर दिया---'जब मेरे पिता की मृत्यु हुई तब ऊपर ऊपर अमंगल होने पर भी उसे आपने मंगल कहा था। इस
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बहुत्व में एकत्व