पृष्ठ:Vivekananda - Jnana Yoga, Hindi.djvu/२१८

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२१४
ज्ञानयोग

होना असम्भव है; कारण, वास्तव में यदि इसी नियम से सभी कार्य हो तो प्रत्येक प्राकृतिक नियम के दो अंश हो जायेंगे―कभी तो एक देवता उसे चलाता है, वह चला गया, उसकी जगह और एक आया। किन्तु वास्तव में हम देखते है कि जो शक्ति हमे खाना पीना देती है वही दैवदुर्विपाक द्वारा अनेकों का संहार भी करती है। यह मल स्वीकार करने में एक और गड़बड यह है कि एक ही समय दो देवता कार्य कर रहे है। एक स्थान पर एक किसी का उपकार कर रहा है, दूसरे स्थान पर दूसरा किसी का अपकार कर रहा है। फिर भी दोनों के बीच सामञ्जस्य बना रहता है―यह किस प्रकार सम्भव है? अवश्य ही यह मत जगत् के द्वैत तत्व को प्रकाश करने की एक बहुत ही स्थूल प्रणाली मात्र है―इसमे कोई सन्देह नहीं।

अब हम उच्चतर दर्शनों में इस विषय में क्या सिद्धान्त माना गया है इस पर विचार करेगे। इनमें स्थूल तत्व की बात छोड़कर सूक्ष्म भाव की दृष्टि से कहा जाता है कि जगत् कुछ तो अच्छा है, कुछ बुरा। पहले जो युक्तिपरम्परा हमने ग्रहण की, उसके अनुसार वह भी असम्भव है।

अतएव हम देखते है कि केवल सुखवाद अथवा केवल दुःख- वाद―किसी भी मत के द्वारा जगत् की यथार्थ व्याख्या या वर्णन नहीं होता। कुछ घटनाएँ सुखवाद की पोषक है, कुछ दुःखवाद की समर्थक। किन्तु क्रमशः हम देखेंगे कि वेदान्त में सभी दोष प्रकृति के कन्धो से हटाकर हमारे अपने ऊपर दिया गया है। और इसी में हमे विशेष आशा भी दी गई है। वेदान्त वास्तव में अमंगल अस्वीकार नहीं करता। वह जगत् की सभी घटनाओ के सभी अंशों