शरीर धारण कर लेगी। इसी तरह वह आत्मा एक देह से दूसरी देह मे जाती रहेगी, कभी स्वर्ग मे जायगी तो कभी पृथ्वी पर आकर मानव देह धारण करेगी अथवा अन्य कोई उच्चतर या निम्नतर जीव-शरीर धारण करेगी। और इस प्रकार वह तब तक आगे बढ़ती जायगी जब तक उसका भोग समाप्त होकर वह अपने निजी स्थान पर लौट न आयेगी। तभी वह अपना स्वरूप जान सकती है, जान सकती है कि वह यथार्थतः क्या है। तब समस्त अज्ञान दूर हो जाता है और उसकी सारी शक्तियाॅ प्रकाशित होजाती है। वह तब सिद्ध हो जाती है, पूर्णता प्राप्त कर लेती है, तब उसके लिये स्थूल शरीर की सहायता से कार्य करने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। सूक्ष्म शरीर के द्वारा कार्य करने की भी आवश्यकता नही रहती। वह तब स्वयंज्योति व मुक्त हो जाती है, उसका फिर जन्म या मृत्यु कुछ भी नहीं होता।
अब इस विषय पर हम और अधिक कुछ आलोचना नही
करेगे। पुनर्जन्म के बारे मे केवल एक और बात की ओर आप लोगो का ध्यान आकर्षित कर हम यह आलोचना समाप्त करेगे। यही मत केवल जीवात्मा की स्वाधीनता की घोषणा करता है। केवल यही एक मत है जो हमारी सारी दुर्बलताओ का दोष दूसरे के मत्थे नही मढता। अपने निज के दोष दूसरे के मत्थे मढ़ना मनुष्य की स्वाभाविक दुर्बलता है। हम अपने दोष नहीं देखते है। क्या ऑखे कभी अपने को देख पाती है? किन्तु वे दूसरे सभी को ऑखे देख सकती है। हम मनुष्य है, अपनी दुर्बलताये, अपनी गलतियॉ मानने को हम तब तक राजी नहीं होते जब तक हम दूसरो पर ये सब लाद सकते है। साधारणतः मनुष्य अपने दोषों तथा अपनी भूलो