सौन्दर्य का लक्ष्य है, ऐश्वर्य का लक्ष्य है, शक्ति का लक्ष्य है, और
तो और, धर्म का भी लक्ष्य है। साधु और पापी दोनों मरते है, राजा
और भिक्षुक दोनों मरते है, सभी मृत्यु को प्राप्त होते हैं। तब भी
जीवन के प्रति यह विषम ममता विद्यमान है। हम क्यो इस जीवन
की ममता करते है? क्यो हम इसका परित्याग नहीं कर पाते?
यह हम नहीं जानते। यही माया है।
माता बड़े यत्न से सन्तान का लालन पालन करती है। उसका समस्त मन, समस्त जीवन मानो इसी सन्तान के लिये है। बालक बड़ा हुआ, युवावस्था को प्राप्त हुआ और शायद दुश्चरित्र एवं पशु होकर प्रतिदिन अपनी माता को मारने पीटने लगा, किन्तु माता फिर भी पुत्र पर मुग्ध है। जब उसकी विचारशक्ति जागृत होती है तब वह उसे अपने स्नेह के, आवरण में ढक कर रखती है। किन्तु वह नहीं जानती कि यह स्नेह नहीं है; एक अपरिज्ञेय शक्ति ने उसके स्नायु-मण्डल पर अधिकार कर लिया है। वह इसे दूर नहीं कर सकती। वह कितनी ही चेष्टा क्यों न करे, इस बन्धन को तोड़ नहीं सकती। यही माया है।
हम सभी कल्पित सुवर्ण लोमो* की खोज में दौड़ते फिरते है। सभी के मन में होता है कि यह हमारा ही प्राप्तव्य है; किन्तु
*सुवर्ग लोम (Golden Fleece):―ग्रीक पौराणिक साहित्य की कथा है कि ग्रीस के अन्तर्गत संसाली देश में राजवंशी आथामास की पत्नी नेफ़ेल के गर्भ से फ्रिक्सस नामक पुत्र और हेल नाम की कन्या ने जन्म लिया। कुछ दिन के बाद नेफ़ेल की मृत्यु होने पर आयामास ने कैडमस की कन्या ईनो के साथ विवाह किया। ईनो ने सपत्नी की सन्तान के प्रति विद्वेष होने के कारण नाना,