उत्तर यह है कि हम पहले ही देख चुके है कि मन के प्रकाश में शरीर का प्रकाश होता है। जब तक मन रहता है तब तक उसका प्रकाश होता रहता है, जब मन लुप्त हो जाता है तब इस देह का प्रकाश भी बंद हो जाता है। आँखो से यदि मन चला जाय तो तुम लोगो की ओर आँखे डालने पर भी हम तुम्हें नहीं देख पायेगे; अथवा श्रवणेन्द्रिय से वह यदि अनुपस्थित रहे तो हम जरा सी आवाज भी नहीं सुन सकते। यही हाल सभी इन्द्रियो के बारे में है। अतएव हम देख रहे है कि मन के प्रकाश में ही शरीर का प्रकाश है। फिर मन के विषय में वही एक सी बात। बाहरी सभी वस्तुएँ उसके ऊपर अपना अपना प्रभाव डाल रही है, अति तुच्छ कारण से ही उसका परिवर्तन हो सकता है, मस्तिष्क के भीतर कोई मामूली गड़बड़ी होने से ही उसमे परिवर्तन हो जाता है। अतएव मन भी स्वप्रकाश नहीं हो सकता, क्योकि यह तो प्राकृतिक नियम है कि जो किसी वस्तु का स्वरूप होता है उसका कभी कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। केवल जो अन्य वस्तु का धर्म है, जो दूसरो का प्रतिबिम्ब स्वरूप है उसी का परिवर्तन हुआ करता है। किन्तु अब एक प्रश्न हमारे सामने आता है कि हम यह क्यो नहीं मान लेते कि आत्मा का प्रकाश, उसका ज्ञान व आनन्द भी उसी तरह दूसरे से लिये हुए है? इस तरह मान लेने से हमारी ग़लती यह होगी कि ऐसी स्वीकृति का कोई अन्त नहीं मिलेगा―फिर प्रश्न आयेगा उसे कहाँ से आलोक मिला है? यदि हम कहे कि वह दूसरी किसी आत्मा से मिला है तो फिर प्रश्न होगा कि उसने कहाँ से वह आलोक प्राप्त किया? अतएव अन्त में हमे ऐसे एक स्थान पर पहुँचना होगा जिसका आलोक दुसरे से नहीं आया है। इसलिये इस विषय में न्यायसंगत सिद्धान्त यही है कि जहाँ पहले ही स्वप्रकाशत्व दिखाई देगा
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