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जगत्

ही स्वयं को प्रकाशित नहीं कर सकता। ज्ञान ही सब जड़ो को प्रकाशित करता है। यह जो सामने हाँल दिखाई दे रहा है ज्ञान को ही इसका मूल कहना पड़ेगा, क्योकि बिना किसी न किसी ज्ञान के सहारे उसका अस्तित्व हम कभी अनुभव ही नहीं कर सकते थे। यह शरीर स्वप्रकाश नहीं है―यदि वैसा ही होता तो मृत-शरीर भी स्वप्रकाशित होता। मन अथवा आध्यात्मिक शरीर भी कभी स्वप्रकाश नहीं हो सकता। वह ज्ञानस्वरूप नहीं है। जो स्वप्रकाश है उसका कभी ध्वंस नहीं होता। जो दूसरे के आलोक से आलोकित है उसका आलोक कभी रहता है, कभी नहीं। किन्तु जो स्वयं आलोकस्वरूप है उसके आलोक का क्या आविर्भाव― तिरोभाव, हास अथवा वृद्धि कभी हो सकती है? हम देख पाते है कि चन्द्रमा का क्षय होता है, फिर वह बढ़ता जाता है―क्योंकि वह सूर्य के आलोक से ही आलोकित है। यदि लोहे का गोला आग में फेक दिया जाय और उसे लाल सा बनाया जाय तो उससे आलोक निकलता रहेगा, किन्तु वह दूसरे का आलोक है, इसलिये वह शीघ्र ही लुप्त हो जायगा। अतएव उसी आलोक का क्षय होता है जो दूसरे से प्राप्त किया गया हो, जो स्वप्रकाश आलोक नहीं है।

अब हमने देखा है कि यह स्थूल देह स्वप्रकाश नहीं है, वह स्वयं अपने को नहीं जान सकती। मन भी स्वयं को नहीं जान सकता। क्यो? क्योकि मन की शक्ति में हास-वृद्धि होती है, कभी उसमे बहुत जोर रहता है तो कभी वह कमज़ोर बन जाता है। कारण बाह्य सभी वस्तुएँ उस पर अपना अपना प्रभाव डालकर उसे