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माया


अविरत चलता ही रहता है। अब उपाय क्या है? जिनके पास खाने पीने की प्रचुर सामग्री है वे सुखाशावादी हो जाते है और कहते हैं, "भय उत्पन्न करनेवाली दुःख की बाते मत कहो, क्लेश की बात मत सुनाओ।" उनके पास जाकर कहो―"सभी मंगल है।" वे कहेगे, "हम तो निरापद है ही; यह देखो, कितनी सुन्दर अट्टा- लिकाओं में हम वास करते है, हमे शीत का कोई भय नहीं है। अतएव हमारे सम्मुख यह भयावह चित्र मत लाना।" किन्तु दूसरी ओर देखिये, शीत और अनाहार से कितने ही लोग मर रहे है। जाओ उन्हे जाकर शिक्षा दो कि 'सभी मड्गल है।' किन्तु यह, जो इस जीवन में भीषण क्लेश पा रहा है, वह तो सुख, सौन्दर्य और मंगल की बात सुनेगा ही नहीं, वह कहता है, “सभी को भय दिखाओ, मैं जब रो रहा हूँ तो और सब कैसे हँसेगे? मैं तो अपने साथ सभी को रुलाऊँगा; कारण कि जब मैं दुःख से पीड़ित हूँ तो सभी दुःख से पीड़ित हो, इसीसे मेरी शान्ति होगी।" हम इसी प्रकार सुखाशाबाद से निराशावाद की ओर चले जाते है। इसके बाद मृत्युरूप भयावह व्यापार आता है―सारा संसार मृत्यु के मुख में चलता जा रहा है; सभी मरते जा रहे है। हमारी उन्नति, हमारे व्यर्थ के आडम्बर पूर्ण कार्यकलाप, समाज-संस्कार, विलासिता, ऐश्वर्य, ज्ञान―मृत्यु ही सब की एक मात्र गति है। यही सर्वस्व है, यही सुनिश्चित है। नगर के नगर बनते और बिगड़ते जाते है। साम्राज्यो के उत्थान और पतन होते है, ग्रहादिक खण्ड खण्ड होकर धूलि के समान चूर्ण बन कर विभिन्न ग्रहो के वायु-प्रवाह में इधर उधर विक्षिप्त होते रहते है। इसी प्रकार अनादिकाल से चलता आ रहा है। इस सब का लक्ष्य क्या है? मृत्यु ही सब का लक्ष्य है, मृत्यु जीवन का लक्ष्य है,