९. जगत्
( अन्तर्जगत् )
स्वभावतः ही मनुष्य का मन बाहर जाना चाहता है, मानो वह इन्द्रिय-प्रणालियो के द्वारा जैसे शरीर के बाहर झांकना चाहता हो। आँखे जरूर देखेगी, कान जरूर सुनेगे, इन्द्रियाँ जरूर बाहरी जगत को देखती रहेगी। इसीलिये स्वभावतः प्रकृति का सौन्दर्य तथा महिमा मनुष्य की दृष्टि को प्रथम ही आकृष्ट कर लेते है। प्रथमतः बहिर्जगत के बारे में मनुष्य ने प्रश्न उठाया था; आकाश, नक्षत्रपुञ्ज, नभोमंडल के अन्यान्य पदार्थसमूह, पृथ्वी, नदी, पर्वत, समुद्र आदि वस्तुओं के विषय में प्रश्न किये गये थे, एवं प्रत्येक प्राचीन धर्म में हमे इसका कुछ न कुछ परिचय मिलता ही है। पहले पहल मानव का मन अंधकार में टटोलता हुआ वाहर में जो कुछ देख पाता था उसे ही पकड़ने की चेष्टा करता था। इसी तरह उसने नदी का एक देवता, आकाश का और कोई देव, मेघ तथा वर्षा का दूसरा अधिष्ठाता देवता मान लिया जिनको हम प्रकृति की शक्ति के नाम से जानते है उन्हे ही सचेतन पदार्थ कहना शुरू हुआ। किन्तु इस प्रश्न की जितनी अधिक खोज होने लगी उतनी ही इन बाह्य देवताओं से मानव के मन को कम तुष्टि मिलने लगी। तब मानव की सारी शक्ति उसके अपने