८. जगत्
( बहिर्जगत् )
सुन्दर पुष्पराशि चारों ओर सुगन्ध फैला रही है, प्रभात का सूर्य अत्यन्त सुन्दर रक्तवर्ण होकर उदित हो रहा है। प्रकृति नाना प्रकार के विचित्र रंगो से सजकर शोभायमान हो रही है, समस्त जगत्ब्रह्माण्ड सुन्दर है, और मनुष्य जब से पृथ्वी पर आया है तभी से इसका भोग कर रहा है। पर्वतमालाये गम्भीर भावव्यंजक एवं भय उत्पन्न करनेवाली हैं, प्रबल वेग से समुद्र की ओर बहने वाली नदियाँ, पदचिन्हों से रहित मरु देश, अनन्त असीम सागर, तारो से भरा आकाश, ये सभी गम्भीर भावों से पूर्ण और भयोद्दीपक है—फिर भी मनोहर हैं। प्रकृति शब्द से कही जानेवाली सभी सत्ताये अति- प्राचीन, स्मृति-पथ के अतीत काल से मनुष्य के मन के ऊपर कार्य कर रही है, वे मनुष्य की विचारधारा के ऊपर क्रमशः प्रभाव बढ़ा रही है और इस प्रभाव की प्रतिक्रिया रूप में क्रमशः मनुष्य के हृदय में यह प्रश्न उठ रहा है कि यह सब क्या है और इसकी उत्पत्ति कहाँ से हुई? अति प्राचीन मानव-रचना वेद के प्राचीन भाग में भी 'इसी प्रश्न की जिज्ञासा हम देखते है। यह सब कहाँ से आया? जिस समय अस्ति, नास्ति कुछ भी नहीं था, जब अन्धकार अन्धकार से ढँका हुआ था तब किसने इस जगत का सृजन किया? कैसे किया? कौन इस रहस्य को जानता है? आज तक यही प्रश्न चला आ रहा है। लाखो बार इसका उत्तर देने की चेष्टा की गई है, किन्तु