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ज्ञानयोग

प्रार्थना करना सिखाया। किन्तु यह भी कहा कि 'जब समय आयेगा तो तुम देखोगे कि मैं तुम्हीं में हूँ, और तुम मुझमें हो, जिससे तुम सभी उस पिता के साथ एक हो सकोगेजिस प्रकार मैं और मेरे पिता अभिन्न है।' बुद्धठेव देवता, ईश्वर आदि को विशेष नहीं मानते थे। साधारण लोग उनको नास्तिक कहते थे किन्तु वे एक साधारण बकरी के लिये प्राण तक देने को प्रस्तुत थे। उन्ही बुद्धदेव ने, जो नीति मनुष्य-जाति के लिये सर्वोच्च ग्रहणीय हो सकती है, उसका प्रचार किया था। जहाँ कहीं भी आप किसी प्रकार का नीति-विधान पायेंगे, वहीं देखेंगे कि उनका प्रभाव, उनका प्रकाश जगमगा रहा है। जगत् के इन सब उच्चहृदय व्यक्तियों को आप किसी सङ्कीर्ण दायरे में बाँध कर नहीं रख सकते, विशेषतः आज, जब कि मनुष्य जाति के इतिहास में एक ऐसा समय आ गया है और सब प्रकार के ज्ञान की ऐसी उन्नति हुई है जिसकी सौ वर्ष पूर्व स्वप्न में भी कल्पना न थी, यहाँ तक कि पचास वर्ष पूर्व जो किसीने स्वप्न में भी नहीं सोचा था, ऐसे सभी प्रकार के वैज्ञानिक ज्ञान का स्रोत वह चला है। ऐसे समय में क्या लोगो को अब भी इस प्रकार के सङ्कीर्ण भावो में आबद्ध करके रखा जा सकता है? हाँ, लोग यदि बिलकुल ही पशुतुल्य चिन्ताहीन जड़ पदार्थ के समान हो जायँ तो यह सम्भव है। इस समय आवश्य- कता है उच्चतम ज्ञान के साथ उच्चतम हृदय, अनन्त ज्ञान के साथ अनन्त प्रेम का योग करने की। अतएव वेदान्ती कहते है, उस अनन्त सत्ता के साथ एकीभूत होना ही एक मात्र धर्म है, और वे भगवान को केवल इतना ही बतलाते है―अनन्त सत्ता, अनन्त ज्ञान, अनन्त आनन्दः और वे कहते हैं कि ये तीनों एक है। ज्ञान और आनन्द के बिना सत्ता कभी रह ही नहीं सकती। हमे यही सम्मेलन