दल के बीच प्रवेश नहीं पा सकता।" आप मुझे ऐसा कोई भी द्वैतवादात्मक धर्म बता दीजिये जिसके भीतर यह संकीर्णता नहीं है। इसी कारण से ये सब धर्म सदा ही परस्पर युद्ध करते रहेंगे और करते रहे है। और ये द्वैतवादी धर्म सदा ही लोकप्रिय होते हैं, क्योकि अशिक्षितों के भाव सदा ही लोकप्रिय होते है। द्वैतवादी समझते है कि एक दण्डधारी ईश्वर के बिना किसी प्रकार की नीति ठहर ही नही सकती। मानलो एक छकड़ा गाड़ी का घोड़ा व्याख्यान देना प्रारम्भ करता है। वह कहेगा--" लन्दन के लोग बड़े खराव हैं; कारण वे हमें नित्यप्रति कोडे नहीं मारते।" वह स्वयं चाबुक खाने मे अभ्यस्त हो गया है। इससे अधिक वह और क्या समझ सकता है? किन्तु वास्तव मे चाबुक की मार से लोग और भी खराब हो जाते है। गहरी चिन्ता करने में असमर्थ लोग सभी देशो में द्वैतवादी हो जाते है। बेचारे गरीबों पर सढा ही अत्याचार होता रहा है। अतः उनकी मुक्ति की धारणा केवल इस दण्ड से मुक्ति पाना है। दूसरी ओर हम यह भी जानते है कि सभी देशो के चिन्ताशील महापुरुषों ने इसी निर्गुण ब्रह्मभाव को लेकर ही कार्य किया है। इसी भाव से भरकर ईसामसीह ने कहा है--'मै और मेरा पिता एक है।' इसी प्रकार का व्यक्ति लाखो व्यक्तियो मे शक्तिसञ्चार करने में समर्थ होता है। यही शक्ति सहस्रों वर्ष तक मनुष्यो के प्राणों मे शुभ परित्राण देने वाली शक्ति का संचार करती है। और हम यह भी जानते हैं कि ये महापुरुष अद्वैतवादी थे, इसीलिये दूसरों के प्रति दयाशील थे। उन्होने साधारण लोगो को 'हमारा स्वर्गस्थ पिता' की शिक्षा दी थी। साधारण लोग जो सगुण ईश्वर से उच्चतर अन्य किसी भाव को धारण नहीं कर सकते थे उन्होंने उनको अपने स्वर्ग मे रहने वाले पिता से
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ब्रह्म और जगत्