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ब्रह्म और जगत्

दया का योग रहे। तभी मणि और काञ्चन का योग होगा, तभी विज्ञान और धर्म एक दूसरे को सहयोग देगे। यही भविष्य में धर्म होगा और यदि हम इसको ठीक ठीक ले सकें तो यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि यह सभी काल और अवस्थाओं के लिये उपयोगी होगा। यदि आप घर जाकर स्थिर भाव से विचार करें तो देखगे कि सभी विज्ञानों में कुछ न कुछ त्रुटि है। किन्तु ऐसा होने पर भी यह निश्चय जानिये कि आधुनिक विज्ञान को इसी एक मार्ग पर आना पड़ेगा―पड़ेगा क्यों―वह तो अभी भी इस ओर आ रहा है। जब कोई बड़ा वैज्ञानिक कहता है कि सभी कुछ उस एक शक्ति का विकास है तब क्या आपके मन में नहीं आता कि उस समय वे उपनिषदो में वर्णित उसी ब्रह्म की महिमा का कीर्तन करते हैं?

अग्निययैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च॥

कठोपनिषद, २९

"जिस प्रकार एक ही अग्नि जगत में प्रविष्ट हो कर नाना रूपों में प्रकट होती है उसी प्रकार वह सब जीवों का अन्तरात्मा एक ब्रह्म नाना रूपो में प्रकाशित हो रहा है और वह जगत के बाहर भी है।" विज्ञान किस ओर जा रहा है, क्या आप नहीं समझ रहे है? हिन्दू जाति मनस्तत्व की आलोचना करते करते दर्शन के द्वारा आगे बढ़ी थी। योरोपीय जातियाँ बाह्य प्रकृति की आलोचना करते करते अग्रसर हुईं। अब दोनों एक स्थान पर पहुँच रहे हैं। मनस्तत्व के भीतर होकर हम उसी एक अनन्त सार्वभौमिक सत्ता में पहुँच रहे है―