प्राणतत्त्व विश्वरहस्य के उद्घाटन में असमर्थ रहा तो उसका विस्तृत अनुशीलन निरर्थक है; कारण, वह विश्वतत्त्व के सम्बन्ध में कोई परिवर्तन नहीं कर सकता। मैं यह कहना चाहता हूँ कि तत्त्वा- नुशीलन में हिन्दू दार्शनिक आधुनिक विद्वानों की भाँति ही एवं कभी कभी उनसे भी अधिक साहसी थे। उन्होने इस प्रकार के अनेक सुविस्तृत साधारण नियमो का आविष्कार किया है जो आज भी बिलकुल नवीन है, और उनके ग्रन्थो में इस प्रकार के अनेक मत विद्यमान है जो कि वर्तमान विज्ञान आज भी मतवाट के रूप में भी प्राप्त नहीं कर सका। दृष्टान्त रूप से दिखलाया जा सकता है कि वे केवल आकाशतत्त्व पर पहुँच कर ही सन्तुष्ट अथवा थकित नहीं हो गये, किन्तु उन्होने और भी आगे बढ़कर समष्टि मन की भी एक सूक्ष्मतर आकाश के रूप में कल्पना की है एवं उसके भी ऊपर एक अधिकतर सूक्ष आकाश को प्राप्त किया है। किन्तु इससे कुछ भी मीमांसा नहीं हुई। रहस्य का उत्तर देने में ये सब तत्त्व समर्थ नहीं है। संसार के सम्बन्ध में व्यर्थ का ज्ञान कितनी ही दूर तक विस्तृत क्यों न हो जाय, इस रहस्य का उत्तर न दे सकेगा। मन में आता है, मानों कुछ थोड़ा बहुत हमे मालूम हो गया है, कुछ सहस्र वर्ष और प्रतीक्षा करने पर इसकी मीमांसा हो जायगी। वेदान्तवादियों ने मन की ससीमता को निःसंशय ही प्रमाणित किया है, अंतएव वे उत्तर देते है, "नहीं, सीमा से बाहर जाने की हमारी शक्ति नहीं है। हम देश, काल, निमित्त के बाहर नहीं जा सकते।" जिस प्रकार कोई भी अपनी सत्ता का उल्लंघन नहीं कर सकता उसी प्रकार देश और काल के नियम ने जो सीमा का बन्धन स्थापित कर दिया है उसको अतिक्रमण करने की क्षमता किसी में नहीं है। देश-काल-
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ज्ञानयोग