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ज्ञानयोग

स्थितियों पर विजय प्राप्त कर सकेगे। उनको पराजित करने का उपाय क्या है? वास्तव में तो हम बाहर के विषयों में परिवर्तन उत्पन्न करके उनके ऊपर विजय प्राप्त कर नहीं पाते। छोटी सी मछली जल में रहने वाले अपने शत्रुओं से अपनी रक्षा करना चाहती है। किस प्रकार वह इस कार्य को करती है? आकाश में उड़ कर, पक्षी बन कर। मछली ने जल अथवा वायु में कोई परिवर्तन नहीं किया―जो कुछ भी परिवर्तन हुआ वह उसके अपने अन्दर ही हुआ। परिवर्तन सदा 'अपने' अन्दर ही होता है। इसी प्रकार हम देखते है कि समस्त क्रमविकास में परिवर्तन 'अपने' अन्दर ही होते होते, प्रकृति पर विजय प्राप्त हो रही है। इसी तत्व का धर्म और नीति में प्रयोग करो तो देखोगे कि यहाँ भी 'अशुभजय' 'अपने' भीतर परिवर्तन के द्वारा ही साधित हो रही है। सभी कुछ 'अपने' ऊपर निर्भर रहता है। यह 'अपने' के ऊपर ज़ोर डालना ही अद्वैतवाद की वास्तविक दृढ़ भूमि है। 'अशुभ, दुःख' यह सब बात कहना ही भूल है, कारण, बहिर्जगत् में इनका कोई अस्तित्व नहीं है। क्रोध के कारणों के बार बार होने पर भी इन सब घटनाओं में स्थिर भाव से रहने का यदि हमे अभ्यास होजाय, तो हमारे अन्दर क्रोध का उद्रेक कभी नहीं होगा। इसी प्रकार लोग मुझसे चाहे कितनी ही घृणा करे, यदि मैं उसका अपने ऊपर प्रभाव नहीं लेता, तो मेरा भी उनके प्रति घृणाभाव उत्पन्न नहीं होगा। इसी प्रकार 'अशुभजय' करना पड़ता है-'अपनी' उन्नति का साधन करके। अतएव आप देखते है कि अद्वैतवाद ही एकमात्र ऐसा धर्म है जो आधुनिक वैज्ञानिकों के सिद्धान्तों के साथ भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही दिशाओं में मिल जाता है, इतना ही