कि जो शक्ति कीटाणु के भीतर क्रीड़ा कर रही थी और जो अन्त में मनुष्य के रूप में परिणत हो गई वह सभी बाधाओ को अति- क्रमण करेगी, बाहर की घटनाये उसको फिर बाधा नहीं पहुँचा पायेगी। इसी बात को दार्शनिक भाषा में इस प्रकार कहना होगा― प्रत्येक कार्य के दो अंश होते हैं; एक विषयी, दूसरा विषय। एक व्यक्ति ने मेरा तिरस्कार किया, मैंने अपने को दुःखी अनुभव किया― यहाँ भी ये ही दो बाते है, और हमारे सारे जीवन की चेष्टा क्या है? यही न कि अपने मन को इतनी दूर तक सरल कर लेना कि जिससे बाहर की परिस्थितियों पर हम अपना आधिपत्य कर सके, अर्थात् उनके द्वारा हमारा तिरस्कार होने पर भी हम किसी कष्ट का अनुभव न करें। इसी प्रकार हम प्रकृति को पराजित करने की चेष्टा कर रहे है। नीति का अर्थ क्या है? 'अपने' को दृढ़ करना―उसे क्रमशः सभी प्रकार की परिस्थितियों को सहन कराना, जैसे आपका विज्ञान कहता है कि कुछ समय के बाद मनुष्य-शरीर सभी अवस्थाओ को सहन करने में समर्थ होगा, और यदि विज्ञान की यह बात सत्य हो तो हमारे दर्शन का यही सिद्धान्त (अर्थात् एक ऐसा समय आयेगा जब हम सभी परिस्थितियों के ऊपर विजय प्राप्त कर सकेगे) आकाटय युक्ति पर स्थापित हो गया, यही कहना पड़ेगा; कारण, प्रकृति सीमित है।
यह बात भी अब समझनी होगी कि प्रकृति ससीम है। 'प्रकृति ससीम है,' कैसे जाना? दर्शन के द्वारा यह जाना जाता है कि प्रकृति उस अनन्त का ही सीमावद्ध भाव मात्र है। अतएव वह सीमित है। अतएव एक समय ऐसा आयेगा जब हम बाहर की परि-