रूप देखना पड़ता था―यही माया है। अतएव यह समुदय जगत् उसी ब्रह्म का एक विशेष रूप है। ब्रह्म ही वह समुद्र है और तुम और मैं, सूर्य, तारे सभी उस समुद्र में विभिन्न तरंग मात्र है। तरंगों को समुद्र से पृथक कौन करता है? वही रूप; और वह रूप है केवल देश-काल-निमित्त। ये देश-काल-निमित्त भी सम्पूर्ण रूप से इन तरंगो के ऊपर निर्भर रहते है। तरंगें जैसे ही चली जाती है वैसे ही ये भी अन्तर्हित हो जाते हैं। जीवात्मा ज्योंही इस माया का परित्याग कर देता है उसी समय उसके लिये वह, अन्तर्हित हो जाती है और वह मुक्त हो जाता है। हमारी सभी चेष्टाये इन देश-काल-निमित्त के अतीत होने के लिये होनी चाहिये। वे सदा ही हमारी उन्नति के मार्ग में बाधा डाल रहे हैं और हम सदा ही उनका ग्रास बनने से अपने को बचा रहे हैं। विद्वान लोग क्रमविकासवाद (Theory of Evolution) किसको कहते हैं? इसके भीतर दो बाते है। एक तो यह कि एक प्रबल अन्तर्निहित गूढ़ शक्ति अपने को प्रकाशित करने की चेष्टा कर रही है और बाहर की अनेक घटनाये उसमे बाधा पहुँचाती है―आस पास की परिस्थितियाँ उसको प्रकाशित नहीं होने दे रही हैं । अतः इन परिस्थितियाँ से युद्ध करने के लिये यह शक्ति नये नये शरीर धारण कर रही है। एक क्षुद्रतम कीटाणु उन्नत होने की चेष्टा में एक और शरीर धारण करता है एवं कितनी ही बाधाओं को पराजित करके रहता है, और इसी प्रकार भिन्न भिन्न शरीर धारण करते हुय अन्त में मनुष्य रूप में परिणत हो जाता है। अब यदि इसी तत्व को उसके स्वाभाविक चरम सिद्धान्त पर ले जाया जाय तो यह अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा कि ऐसा समय आयेगा जब
पृष्ठ:Vivekananda - Jnana Yoga, Hindi.djvu/१५६
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१५२
ज्ञानयोग