काल भी दो घटनाओं पर निर्भर रहता है। और 'निमित्त' अथवा 'कार्यकारण भाव' की धारणा इन देश और काल के ऊपर निर्भर रहती है। 'देश-काल-निमित्त' इन सब के भीतर विशेषत्व यही है कि इनकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। इस कुर्सी अथवा उस दीवार का जैसा अस्तित्व है उनका वैसा भी नहीं है। वे जैसे-सभी वस्तुओं के पीछे लगी हुई छाया के समान है, आप किसी प्रकार भी उन्हें पकड़ नहीं सकते। उनकी तो कोई सत्ता नहीं है―हम देख चुके है कि उनका वास्तविक अस्तित्व ही नहीं है—अधिक से अधिक वे छाया के समान है। और, वे कुछ भी नहीं है यह भी नहीं कहा जा सकता; कारण, उन्हीं के द्वारा जगत् का प्रकाश हो रहा है―ये तीनो मानो स्वभावतः ही मिल कर नाना रूपों की उत्पत्ति कर रहे है। अतएव पहले हमने देखा कि इन देश-काल- निमित्त की समष्टि का अस्तित्व भी नहीं है और वे बिलकुल असत् (अस्तित्व शून्य) भी नहीं है। दूसरे, ये कभी कभी बिलकुल ही अन्तर्हित हो जाते है। उदाहरण स्वरूप समुद्र की तरंगों को लीजिये। तंरग अवश्य ही समुद्र के साथ अभिन्न है तथापि हम उसको तरंग कड़कर समुद्र से पृथक रूप में जानते हैं। इस विभिन्नता का कारण क्या है—नाम रूप। नाम अर्थात् उस वस्तु के सम्बन्ध में हमारे मन में जो एक धारणा रहती है; और रूप अर्थात् आकार। फिर क्या तरंग को समुद्र से बिलकुल पृथक रूप में हम सोच सकते है? कभी नहीं। वह सदा ही इसी समुद्र की धारणा के ऊपर निर्भर रहती है। यदि यह तंरग चली जाय, तो रूप भी अन्तर्हित हो गया, किन्तु यह रूप बिलकुल ही भ्रमात्मक था, यह बात नहीं। जब तक यह तरंग थी तब तक यह रूप था और आप को बाध्य होकर यह
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ब्रह्म और जगत्