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ज्ञानयोग

वस्तु बन जायगा। उसको जाना नहीं जा सकता, वह सर्वदा ही अज्ञेय है। किन्तु तब भी अद्वैतवादी कहते हैं कि वह केवल 'ज्ञेय' ही नहीं, उससे भी विशिष्ट और कुछ है। अब हमें इस बात को समझना होगा। आपको यह नहीं समझना चाहिये कि अज्ञेयवादियों के ईश्वर के समान वह अज्ञेय है। दृष्टान्त स्वरूप देखो—सामने यह कुर्सी है, उसे मैं जानता हूँ―वह मेरा ज्ञात पदार्थ है। और आकाश के बाहर क्या है, वहाँ कुछ लोगो की बस्ती है कि नहीं, यह बात शायद बिल्कुल ही अज्ञेय है। किन्तु ईश्वर इन दोनों पदार्थों की भाँति ज्ञेय भी नहीं है और अज्ञेय भी नहीं। किन्तु ईश्वर जिसे हम 'ज्ञात' कहते हैं उससे और भी कुछ अधिक ज्ञात है―ईश्वर को अज्ञात वा अज्ञेय कहने से यही समझा जाता है, किन्तु जिस अर्थ में कुछ लोग कुछ प्रश्नों को अज्ञात या अज्ञेय कहते हैं उस अर्थ में नहीं। ईश्वर ज्ञात से भी अधिक और कुछ है। यह कुर्सी हमारे लिये ज्ञात है, किन्तु हमारे लिये ईश्वर इससे भी अधिक ज्ञात है, कारण, पहले उसे जान कर―उसी के भीतर से―हमे कुर्सी का ज्ञान प्राप्त करना होता है, क्योंकि वह साक्षी स्वरूप है, सभी ज्ञान का वह अनन्त साक्षी स्वरूप है। हम जो कुछ भी जानते है, पहले उसे जान कर―उसी के भीतर से―जानते है। वहीं हमारी आत्मा का सार सत्ता स्वरूप है। वही वास्तविक 'अहं' है―वही 'अहं' हमारे इस 'अहं' का सार सत्ता स्वरूप है। हम उस 'अहं' के भीतर से जाने बिना कुछ भी नहीं जान सकते, अतएव सभी कुछ हमे ब्रह्म के भीतर से ही जानना पड़ेगा। अतएव इस कुर्सी को जानना होगा तो उसे ब्रह्म के भीतर से ही जानना होगा। अतएवं ब्रह्म कुर्सी की अपेक्षा हमारे अधिक निकट हुआ, किन्तु फिर भी वह हमारे निकट