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माया

ईथर की अपेक्षा अधिक परिपुष्ट रूप से पाया जाता है। किन्तु वह मूल तत्त्व में ही पर्यवसित था। वे लोग इस आकाशतत्त्व के कार्य की व्याख्या करते समय बहुत से भ्रमो में पड़ गये थे। जगत् की सम्पूर्ण जीवनी शक्ति जिसका विभिन्न विकास मात्र है वही सर्वव्यापी जीवनी शक्ति-तत्व वेद में―उसके ब्राह्मणांश में ही प्राप्त हो जाता है। संहिता के एक बड़े मंत्र में समस्त जीवनी शक्ति के विकासक प्राण की प्रशंसा की गई है। इसी सम्बन्ध में आप लोगों में से कुछ को यह जानकर आनन्द होगा कि आधुनिक योरोपीय वैज्ञानिको के सिद्धान्तो के सदृश इस पृथिवी के जीवो की उत्पत्ति का सिद्धान्त वैदिक दर्शनों में पाया जाता है। आप सभी निश्चय ही जानते है कि जीव अन्य ग्रहों से संक्रामित होकर पृथ्वी पर आता है, ऐसा एक मत प्रचलित हैं। जीव चन्द्रलोक से पृथ्वी पर आता है, किसी किसी वैदिक वैज्ञानिक का यही स्थिर मत है।

मूल तत्त्व के सम्बन्ध में हम देखते है कि उन्होने व्यापक साधारण तत्त्वो की छानबीन में अतिशय साहस और आश्चर्यजनक निर्भीकता का परिचय दिया है। बाह्य जगत् से इस विश्व-रहस्य के मर्म को निकालने में उन्हे यथा सम्भव उत्तर मिला। और, इस प्रकार उन्होने जितने मूल तत्त्वो का आविष्कार किया था उससे जगत् के रहस्य की ठीक मीमांसा जब नहीं हो सकी, तब, आधुनिक विज्ञान की विशेष प्रतिपत्ति भी उसकी मीमांसा में अधिक सहायक न हो सकेगी, यह निश्चित है। यदि प्राचीन काल में आकाशतत्त्व विश्वरहस्य को भेदने में समर्थ नहीं हुआ तब उसका विस्तृत अनुशीलन भी हमें सत्य की ओर अधिक अग्रसर नहीं कर सकता। यदि यह सर्वव्यापी