है। जो केवल अपने अस्तित्व में स्वयं ही प्रकाशित है, जो एक मात्र, एकमेवाद्वितीयम् है उसका कोई कारण हो ही नहीं सकता। जो मुक्तस्वभाव है, स्वतंत्र है उसका कोई कारण नहीं हो सकता, क्योकि, ऐसा होने पर वह मुक्त नहीं रहेगा, बद्ध हो जायगा। जिसके- भीतर आपेक्षिकता है वह कभी मुक्तस्वभाव नहीं हो सकता। अतएव अब आपने देख लिया कि अनन्त सान्त कैसे हुआ, यह प्रश्न ही भ्रमात्मक और स्वविरोधी है।
यह सब सूक्ष्म विचार छोड़ कर सीधे सादे भाव से भी हम इस विषय को समझा सकते है। मान लो, हमने समझ लिया कि ब्रह्म किस प्रकार जगत् हो गया, अनन्त किस प्रकार सान्त हो गया, तब क्या ब्रह्म ब्रह्म ही रह गया, और क्या अनन्त अनन्त ही रह गया? ऐसा होने पर अनन्त सान्त ही हो गया। साधारण रूप से हम ज्ञान किसे कहते है? जो कोई विषय हमारे मन के विषयीभत हो जाता है अर्थात् मन के द्वारा सीमाबद्ध हो जाता है वही हम जान सकते है, और जब वह हमारे मन के बाहर रहता है अर्थात् मन का विषय नहीं रहता तब हम उसे नहीं जान सकते। अब यह स्पष्ट हो गया कि यदि यही अनन्त ब्रह्म मन के द्वारा सीमाबद्ध हो गया तो फिर अब वह अनन्त नहीं रहा, वह सान्त हो गया। मन के द्वारा जो कुछ भी सीमाबद्ध है वह सभी ससीम है। अतएव, उसी 'ब्रह्म को जानना' यह बात भी स्वविरोधी ही है। इसीलिये इस प्रश्न का उत्तर अब तक नहीं मिला; कारण, यदि उत्तर मिल जाय तो वह असीम नहीं रहेगा; ईश्वर 'ज्ञात' हो जाय तो उसका ईश्वरत्व नहीं रह सकता―वह हमारे ही समान एक व्यक्ति हो जायगा―इस कुर्सी के समान एक १०