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७. ब्रह्म और जगत्

अद्वैत वेदान्त के इस विषय की धारणा करना अत्यन्त कठिन है कि जो ब्रह्म अनन्त है वह सान्त अथवा ससीम किस प्रकार हुआ। यह प्रश्न मनुष्य सर्वदा करता रहेगा किन्तु जीवन भर इस प्रश्न का विचार करते रहने पर भी उसके हृदय से यह प्रश्न कभी दूर नहीं होगा—जो असीम है वह सीमित कैसे हुआ? मैं अब इसी प्रश्न को लेकर आलोचना करूँगा। इसको ठीक प्रकार से समझाने के लिये मैं नीचे दिये हुये चित्र की सहायता लूँगा।

(क) ब्रह्म

(ग)
देश
काल
निमित्त


(ख) जगत्

इस चित्र में (क) ब्रह्म है और (ख) है जगत्। ब्रह्म ही जगत् हो गया है। यहाँ पर जगत् शब्द से देश केवल जड़ जगत् ही नहीं किन्तु सूक्ष्म तथा आध्यात्मिक जगत् भी उसके साथ ग्रहण करना होगा—स्वर्ग, नरक—एक शब्द में, जो कुछ भी है जगत् शब्द से यह समस्त ही लिया जायगा। मन एक प्रकार के परिणाम का नाम है, शरीर एक दूसरे प्रकार के परिणाम का—इत्यादि, इत्यादि। यही सब कुछ लेकर जगत् है। यही ब्रह्म (क) जगत् (ख) बन गया है—देश-काल-निमित्त (ग) में से होकर आने से, यही अद्वैतवाद की मूल बात है। देश-काल-निमित्त रूपी काँच में से हम ब्रह्म को देखते हैं, और इस प्रकार नीचे की ओर से देखने से ब्रह्म हमें जगत् के रूप में दीखता है। इससे यह स्पष्ट है कि जहाँ ब्रह्म है वहाँ देश-काल-निमित्त नहीं है। काल वहाँ रह नहीं सकता, कारण