उस वाणी का अनुसरण जब हम करते हैं तभी हम नीति- परायण होते हैं। केवल जीवात्मा ही नहीं किन्तु छोटे से छोटे जड़ परमाणु से लेकर ऊँचे से ऊँचे मनुष्यों तक सभी ने वह स्वर सुना है, और सब उसी की दिशा में दौड़े जा रहे है। और इस चेष्टा में या तो हम परस्पर मिल जाते हैं या एक दूसरे को धक्का देते है। और इसी से प्रतिद्वन्द्विता, हर्ष, संवर्ष, जीवन, सुख और मृत्यु आदि उत्पन्न होते हैं और उस वाणी तक पहुँचने के लिये यह जो संघर्ष चल रहा है यह समस्त जगत् उसी का परिणाम मात्र है। यही हम सब करते चल रहे है। यही व्यक्त प्रकृति का परिचय है।
इस वाणी के सुनने से क्या होता है? इससे हमारे सामने का दृश्य परिवर्तित होने लगता है। जैसे ही तुम इस स्वर को सुनते हो और समझते हो कि यह क्या है, वैसे ही तुम्हारे सामने का समस्त दृश्य बदल जाता है। यही जगह जो पहले माया का वीभत्स युद्धक्षेत्र था, अब और कुछ―अपेक्षाकृत अधिक सुन्दर―हो जाता है। तब फिर हमे प्रकृति को कोसने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। जगत् बड़ा वीभत्स है अथवा यह सब वृथा है यह बात भी कहने की आवश्यकता नहीं रह जाती; रोने चिल्लाने की भी आवश्यकता नहीं रह जाती। जैसे ही तुम इस स्वर को सुन पाते हो, वैसे ही तुम्हारी समझ में आ जाता है कि यह सब चेष्टा, यह युद्ध, यह प्रतिद्वन्द्विता, यह गडबड, यह निष्ठुरता, यह सब छोटे छोटे सुखों का प्रयोजन क्या है! तब यह स्पष्ट समझ में आता है कि यह सब प्रकृति क स्वभाव से ही होता है; हम सब जान कर अथवा अनजाने उसी स्वर की ओर अग्रसर हो रहे है, इसीलिये यह सब हो रहा है। अतएव