पृष्ठ:Vivekananda - Jnana Yoga, Hindi.djvu/१३८

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१३४
ज्ञानयोग

सम्बन्ध में नाना प्रकार की कठिनता तथा मतभेदों के होने पर भी― यह ब्रह्म सगुण है या निर्गुण, मनुष्य की भाँति ज्ञानसम्पन्न है या नहीं, वह पुरुष है, स्त्री है अथवा नपुंसक―इस प्रकार के अनन्त विचारों के होने पर भी―विभिन्न मतो के प्रबल विरोध होने पर भी―इन सब के भीतर एकत्व का जो सुवर्णसूत्र उन्हे ग्रंथित किये हुये है, वह हम देख पाते है; अतः यह सब विभिन्नता या विरोध हमारे अन्दर भय उत्पन्न नहीं करता; और इसी वेदान्त-दर्शन में यह सुवर्ण-सूत्र आविष्कृत हुआ है; हमारी दृष्टि के सामने थोड़ा थोड़ा करके प्रकाशित हुआ है, और इसमे पहले ही यही तत्व प्राप्त होता है कि हम सभी विभिन्न पथो के द्वारा उसी एक मुक्ति की ओर अग्रसर हो रहे है; सभी धर्मों का यही एक साधारण भाव है।

अपने सुख, दुःख, विपत्ति और कष्ट, सभी अवस्थाओं में हम यही आश्चर्य की बात देखते है कि हम सब धीरे धीरे उसी मुक्ति की ओर अग्रसर हो रहे है। प्रश्न उठा—यह जगत् वास्तव में क्या है? कहाँ से इसकी उत्पत्ति हुई और कहाँ इसका लय है? और इसका उत्तर था,―मुक्ति से ही इसकी उत्पत्ति है, मुक्ति में यह विश्राम करता है और अन्त में मुक्ति में ही इसका लय हो जाता है। यह जो मुक्ति की भावना है कि वास्तव में हम मुक्त है, इस आश्चर्य- जनक भावना को छोड़ कर हम एक क्षण भी नहीं चल सकते, इस भाव को छोड़ कर तुम्हारे सभी कार्य, यहाँ तक की तुम्हारा जीवन तक व्यर्थ है। प्रतिक्षण प्रकृति हमारा दासत्व सिद्ध कर रही है किन्तु उसके साथ ही साथ यह दूसरा भाव भी हमारे मन में उत्पन्न होता रहता है कि फिर भी हम मुक्त हैं। प्रतिक्षण ही हम माया के द्वारा