जीवन के सभी अशुभों पर विजय-प्राप्ति की सम्भावना रहती है। और तो क्या, जीवन और जगत् के ऊपर भी विजयप्राप्ति की आशा रहती है। इसी उपाय से मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा हो सकता है। अतएव जो लोग इस विजयप्राप्ति के लिये, सत्य के लिये, धर्म के लिये चेष्टा कर रहे है वे ही सत्य पथ पर है, और सब वेद भी यही प्रचार करते हैं, "निराश मत होओ, मार्ग बड़ा कठिन है―जैसे छुरे की धार पर चलना; फिर भी निराश मत होओ; उठो, जागो और अपने चरम आदर्श को प्राप्त करो।"
सभी विभिन्न धर्मों की, चाहे वे किसी भी रूप में मनुष्य के निकट अपनी अभिव्यक्ति करत हो, सब की यही एक मूलभित्ति है। सभी धर्म जगत् के बाहर जाने का अर्थात् मुक्ति का उपदेश देते है। इन सब धर्मों का उद्देश्य―संसार और धर्म के बीच मुलह कराना नहीं, किन्तु धर्म को अपने आदर्श में दृढप्रतिष्ठित करना है, संसार के साथ सुलह करके उस आदर्श को नीचे नहीं लाना―प्रत्येक धर्म इसका प्रचार करता है और वेदान्त का कर्तव्य है—विभिन्न धर्मभावों का सामञ्जस्य स्थापित करना, जैसा हमन अभी देखा कि मुक्ति की बात को लेकर जगत् के उच्चतम और निम्नतम धर्मों में सामञ्जस्य पाया जाता है। हम जिसको अत्यन्त घृणित कुसंस्कार कहते है, और जो सर्वोच्च दर्शन है सभी की यह एक साधारण भित्ति है कि वे सभी इस एक प्रकार के सङ्कट से निस्तार पाने का मार्ग दिखाते है और इन सब धर्मों में से अधिकांश में प्रपंचानीत पुरुषविशेष की सहायता से―प्राकृतिक नियमो से आवद्ध नहीं अर्थात् नित्य मुक्त पुरुषविशेप की सहायता से― इस मुक्ति की प्राप्ति करनी पड़ती है। इस मुक्त पुरुष के स्वरूप के