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ज्ञानयोग

आशा नहीं है? यह बात सत्य है कि हम सभी माया के दास हैं, हम सभी माया के अन्दर ही जन्म लेते हैं और माया में ही हम जीवित रहते हैं।

तब क्या कोई उपाय नहीं है, कोई आशा नहीं है? यह वात कि हम सब अतीव दुर्दशा में पड़े है, यह जगत् वास्तव में एक कारागार है, हमारी पूर्वप्राप्त महिमा की छटा भी एक कारागार है, हमारी बुद्धि और मन भी एक कारागार के समान है, ये सब बातें सैंकडो युगो से लोगो को मालूम है। मनुष्य चाहे जो कुछ कहें, ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है जो किसी न किसी समय इस बात को हृदय से अनुभव न करता हो। बुड्ढे लोग इसको और भी तीव्रता के साथ अनुभव करते है, क्योकि उनकी जीवन भर की सञ्चित अभि- ज्ञता रहती है, प्रकृति की मिथ्या भाषा उन्हें अधिक ठग नहीं सकती। इस बन्धन को तोड़ने का क्या उपाय है? क्या इसे तोड़ने का कोई उपाय नहीं है? हम देखते हैं कि यह भयंकर व्यापार, यह बन्धन हमारे सामने, पीछे, चारों ओर रहने पर भी इसी दुःख और काष्ट के बीच, इसी जगत् में जहाँ जीवन और मृत्यु का एक ही अर्थ है, यहाँ भी एक महावाणी सभी युगों में, सभी देशो में, सभी व्यक्तियो के हृदय के भीतर से मानो उठ रही है―


"दैवी ह्येपा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥"

"मेरी ग्रह देवी त्रिगुणमयी माया बड़ी मुश्किल से पार की जाती है। जो मेरी शरण में आते है वे इस माया के पार हो जाते हैं।" "हे