वह राजा को, प्रजा को, सुन्दर को, कुत्सित को―सभी को खा डालता है, किसी को भी नहीं छोड़ता। सभी कुछ उस चरम गति―विनाश की ओर अग्रसर हो रहा है। हमारा ज्ञान, शिल्प विज्ञान― सभी कुछ उसी एक अनिवार्य गति मृत्यु की ओर अग्रसर हो रहा है। कोई भी इस तरंग की गति को नहीं रोक सकता, कोई भी इस विनाशाभिमुखी गति को एक क्षण के लिये भी रोक कर रख नहीं सकता। हम उसे भूले रहने की चेष्टा कर सकते है, जैसे किसी देश में महामारी फैलने पर शराब, नाच, गान आदि व्यर्थ की चेष्टाये करके लोग सब कुछ भूलने की चेष्टा करते हुये लकवा मारे हुये मनुष्य की भाँति गतिशक्तिरहित हो जाते है। हम लोग भी इसी प्रकार इस मृत्यु की चिन्ता को भूलने की अति कठोर चेष्टा कर रहे है―सभी प्रकार के इन्द्रियसुखों के द्वारा उसे भूलने की चेष्टा कर रहे है किन्तु इससे उसकी निवृत्ति नहीं होती।
लोगों के सामने दो मार्ग है। इनमे से एक सभी जानते है― वह यह है―"जगत् में दुःख है, कष्ट है, सब सत्य है किन्तु इस सम्बन्ध में बिल्कुल सोचना नहीं चाहिये। 'यावज्जीवेत्सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृत पिबेत्।' दुःख अवश्य है किन्तु उधर नज़र मत डालो। जो थोड़ा बहुत सुख मिले उसे भोग कर लो, इस संसार-चित्र के अन्धकारमय अश को मत देखो―केवल प्रकाशमय अंश, की ओर देखो।" इस प्रकार के विचारों में कुछ सत्य तो अवश्य है किन्तु इस में भयानक विपत्ति की आशंका भी है। इसमें सत्य इतना ही है कि यह हमे कार्य में प्रवृत्त रखता है। आशा एवं इसी प्रकार का एक प्रत्यक्ष आदर्श हमे कार्य में प्रवृत्त और उत्साहित करता है