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माया और मुक्ति

कुछ दूर जाने के बाद ही लहरों का वेग बढ़ने लगा। कन्धे पर बैठे हुये शिशु की नारद किसी प्रकार रक्षा न कर सके; वह गिर कर तरंगो में वह गया। निराशा और दुख से नारद चीत्कार कर उठे। उसकी रक्षा करने को जाते ही और एक बालक, जिसका हाथ वे पकड़े हुये थे, हाथ से छूट डूब कर मर गया। अपनी पत्नी को वे अपने शरीर की समस्त शक्ति लगा कर पकड़े हुये थे, अन्त में तरंगो के वेग से पत्नी भी उनके हाथ से छूट गई और वे स्वयं तट पर गिर कर मिट्टी मे लोटपोट होने लगे और बड़े कातर स्वर में विलाप करने लगे। इसी समय मानो किसी ने उनकी पीठ पर कोमल हाथ रख कर कहा―"वत्स, कहाँ, जल कहाँ है? तुम जल लेने गये थे, मैं तुम्हारी प्रतीक्षा में हूँ। तुम्हें गये हुये आधा घण्टा हुआ।" आध घण्टा! नारद के लिये तो बारह वर्ष बीत चुके थे! और आध घण्टे के भीतर ही ये सब दृश्य उनके मन के अन्दर से निकल गये―यही माया है! किसी न किसी रूप में हम सब इसी माया के भीतर रहते है। यह बात समझना बड़ा कठिन है―विषय भी बड़ा जटिल है। इसका क्या तात्पर्य है? तात्पर्य यही है कि―यह बात बड़ी भयानक है―सभी देशों में महापुरुषो ने इसी तत्व का प्रचार किया है, सभी देशो के लोगों ने यही शिक्षा प्राप्त की है, किन्तु बहुत कम लोगों ने इस पर विश्वास किया है, उसका कारण यही है कि स्वयं बिना भोगे हुये, बिना ठोकर खाये हुये हम इस पर विश्वास नहीं कर सकते। सच पूछिये तो सभी बृथा है, सभी मिथ्या है।

सर्व-संहारक काल आकर सब को ग्रास कर लेता है, कुछ भी नहीं छोड़ता। वह पाप को खा जाता है, पापी को भी खा जाता है,