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ज्ञानयोग

के अनुकरण से क्या लाभ है? तथापि हम सारे जीवन भर केवल इसी के लिये चेष्टा करते रहते हैं; यही माया है।

इन्द्रियाँ मनुष्य की आत्मा को बाहर खींच लाती है। मनुष्य उन स्थानो में सुख और आनन्द की खोज कर रहा है जहाँ वह उन्हे कभी भी नहीं पा सकता। युगो से हम यह सीखते आ रहे है कि यह निरर्थक और व्यर्थ है; यहाँ हमे सुख नहीं मिल सकता, परन्तु हम सीख नहीं सकते! अपने अनुभव के अतिरिक्त और किसी उपाय से हम सीख नहीं सकते। हम प्रयत्न करते है; हमे धक्का लगता है, फिर भी क्या हम सीखते है? नहीं, फिर भी नहीं सीखते। पतग जैसे दीपक की लौ पर जलते है उसी प्रकार हम इन्द्रियो में सुख की प्राप्ति की आशा से अपने को बार बार झोकते है। हम फिर लौटते हैं, ताजगी लेकर; इसी प्रकार चलता रहता है और अन्त में असमर्थ होकर, धोखा खाकर हम मर जाते है; और यही माया है।

यही बात हमारी बुद्धि के सम्बन्ध में भी है। हमजगत् के रहस्य की मीमासा करने की चेष्टा करते है―हम इस जिज्ञासा, इस अनुसन्धान की प्रवृत्ति को बन्द नहीं रख सकते; किन्तु हम लोगो को यह जान लेना चाहिये कि ज्ञान प्राप्तव्य वस्तु नहीं है―कुछ पद अग्रसर होते ही अनादि अनन्त काल का प्राचीर बीच में व्यवधान के रूप में आ खड़ा होता है जिसे हम लाँघ नहीं सकते। कुछ दूर बढ़ कर अनादि देश का व्यवधान आकर खड़ा हो जाता है जिसे अतिक्रमण नहीं कर सकते; सभी कुछ अनतिक्रमणीय हो कर हम हम कार्यकारण रूपी दीवार की सीमा से बद्ध है। हम इसे लाँघ कर आगे नहीं जा