६. माया और मुक्ति
कवि कहते हैं कि "हम जिस समय जगत् में प्रवेश करते हैं उस समय अपने पीछे मानों एक हिरण्मय मेघजाल लेकर प्रवेश करते है।" किन्तु यदि सच पूछो तो हम में से सभी इस प्रकार महिमामण्डित होकर संसार में प्रवेश नहीं करते, हममें से बहुत से तो कुज्झटिका (कुहरे) की कालिमा अपने पीछे लेकर जगत् में प्रवेश करते हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं। हम लोग, हममें से सभी मानों युद्ध करने के लिये युद्धक्षेत्र में प्रेरित कर दिये गये है। रोते रोते हमे इस जगत् में प्रवेश करना होगा―यथासाध्य चेष्टा करके अपना मार्ग बनाना होगा―इस अनन्त जीवन-समुंद्र में पीछे की ओर कोई चिन्ह तक न छोड़कर मार्ग बनाना होगा―सम्मुख की ओर हम अग्रसर हो रहे है, पीछे अनन्त युग पड़े है, और सामने भी अनन्त युग पड़े हैं। इसी प्रकार हम चलते रहते है और अन्त में मृत्यु आकर हमें इस क्षेत्र से अपसारित कर देती है―विजयी अथवा पराजित कुछ भी निश्चित नहीं है; यही माया है।
बालक के हृदय की आशा बलवती होती है। बालकों के विस्फारित नयनों के समक्ष समस्त जगत् मानों, एक सुनहले चित्र के समान मालूम पड़ता है, वह समझता है कि मेरी जो इच्छा होगी वही होगा। किन्तु जैसे ही वह आगे बढ़ता है वैसे ही प्रत्येक पद पर प्रकृति बज्रदृढ़ प्राचीर के रूप में उसका गतिरोध करके खड़ी हो